Thursday, July 2, 2020

दाम्‍पत्‍य जीवन में प्रतीक चि‍ह्र धारण करना कि‍तना आवश्‍यक है ?


जब से गुवाहाटी हाईकोर्ट का तलाक के मामले में यह फैसला आया है कि‍ अगर पत्‍नी शाखा चूड़ि‍यां पहनने और सि‍ंदूर लगाने से इनकार करे तो इसका मतलब है कि‍ उसे शादी स्‍वीकार नहीं, फि‍र एक बार पति‍-पत्‍नी के संबंध और वैवाहि‍क चि‍ह्रों को लेकर चर्चा जोर पकड़ने लगी है। 

क्‍या वाकई दाम्‍पत्‍य जीवन इन प्रतीकों को धारण करने के बाद ही सफल माना जा सकता है। अगर पत्‍नी सि‍ंदूर न लगाये या बि‍छि‍या न पहने तो वह पति‍ को प्‍यार नहीं करती या उसके साथ जीवन नहीं गुजरना चाहती ? अगर आपने गौर कि‍या हो तो पता लगेगा कि‍ यह सब चि‍न्‍ह्र भी अब पर्व-त्‍योहरों तक सीमि‍त होते जा रहे हैं। खासकर कामकाजी महि‍लाएं इन परंपराओं को हौले-हौले छोड़ती जा रही हैं और यह उचि‍त भी है। शादीशुदा जिंदगी की असल सार्थकता इसी में है कि‍ सहजीवन में दो साथी, सहचर का प्रतिज्ञा बद्ध होकर आगे बढऩा। यही दाम्पत्य या वैवाहिक जीवन का मकसद होता है। 

हालांकि‍ तलाक का फैसला इसी आधार पर नहीं कि‍या गया है और पक्ष-वि‍पक्ष के तर्क वि‍वाह वि‍धि‍यों के नि‍यम को ध्‍यान में रखकर वादी द्वारा दाखि‍ल कि‍सी खास बि‍ंदू के उत्‍तर के रूप में यहआदेश दि‍या गया है, फि‍र भी यह सवाल तो उठाया ही जा सकता है, और उठाया भी जा रहा है कि‍ शादीशुदा जीवन के लि‍ए प्रतीक धारण करना आवश्‍यक है और वह भी केवल स्‍त्रि‍यों द्वारा। 

अगर इति‍हास के पन्‍नों में झाकंगे तो पता चलेगा कि‍ कि‍सी समय असुर या राक्षस वि‍जेता जीती हुई महि‍ला के होंठ-कान छेदकर या हाथों में बेड़ी डालकर उसे ले जाते थे, जि‍से बाद में गहना का नाम दि‍या गया।  नथ अरबों की नकेल है, जि‍ससे वह जानवरों को नि‍यंत्रि‍त करता था। आज औरत इन सब आभूषणों को सुहाग, सम्‍मान और गर्व के साथ पहनती हैं, जो उनकी गुलामी का प्रतीक है। 

मुझे याद है कुछ वर्ष पहले हि‍ंदी साहि‍त्‍य की प्रसि‍द्ध लेखि‍का मैत्रेयी पुष्‍पा ने छठ पूजा की परंपरा में नाक से सि‍ंदूर लगाने को लेकर सवाल उठाया था और बुरी तरह ट्रोल होने के बाद अपनी पोस्‍ट हटा दी थी उन्‍होंने। तब बात धर्म और आस्‍था पर आकर रूक गई थी, मगर यह सवाल तो तमाम स्‍त्रि‍यों के मन में कभी न कभी उठती  ही होगी कि‍ सारे प्रतीक उनके ही हि‍स्‍से क्‍यों हैं। सिंदूर, बि‍छि‍या और चूड़ी स्‍त्री ही धारण करे, मंंगलसूत्र भी वही पहने और तीज-करवाचौथ जैसा पति‍ की लंबी आयु के लि‍ए व्रत वो ही करेंं। कौन पति‍ अपनी पत्नी की लंबी आयु के लि‍ए व्रत और पूजा-पाठ करता है या शादी का कोई प्रतीक चि‍न्‍ह धारण करता है कि‍ लोगों को यह पता चले कि‍ वह वि‍वाहि‍त है। 

जहां तक सि‍ंदूर लगाने की शुरूआत की बात है तो, उसे स्‍त्री शौर्य का प्रतीक मानकर पहली बार लगाया गया था, मगर धीरे-धीरे यह परंपरा का हि‍स्‍सा और वि‍वाहि‍त स्‍त्री का अनि‍वार्य चि‍न्‍ह्र बन गया।  हमारी कंडीशनि‍ंग इस तरह से की गई कि‍ यह सहज ग्राह्य और अनि‍वार्य रूप बनता गया और धर्मभीरू मन अनि‍ष्‍ट की आशंका से डरा इन्‍हें धारण करता आया है।  मगर सि‍ंदूर की डि‍बि‍या सहेजकर ही पति‍ का साथ चि‍रंतर प्राप्‍त होता रहे, यह संभव नहीं। उसके लि‍ए आपसी सामंजस्‍य और प्‍यार बहुत जरूरी है। और मेरा मानना है कि‍ कोई भी पति‍ अपनी पत्‍नी को प्रेम करता है तो उसे जबरन इन चि‍न्‍हाेंं को धारण करने के लि‍ए नहीं कहेगा। अगर स्‍त्री शौक और खूबसूरत दि‍खने के कारण चूड़ि‍यां पहनती और सि‍ंदूर लगाती हो, तो बात अलग है। 

मगर एक प्रतीक का उदाहरण यह भी है कि‍ अगर स्‍त्री चूड़ि‍यां पहने तो वह सुंदरता और सुहाग की नि‍शानी है, मगर पुरूष खुद को मर्द साबि‍त करने के लि‍ए कि‍सी भी झगड़े के दौरान गर्व से घोषि‍त करता है कि‍- '' मैंने हाथों में चूड़ि‍यां नहीं पहन रखी हैं।'' अर्थात चूडि‍यां कमजाेरी का प्रतीक है, और स्‍त्री को कमजोर बनाये रखने के लि‍ए साजि‍श के तहत उन्‍हें चूड़ी, सि‍ंदूर, और गहनों में उलझाकर रख दि‍या गया है। 

सच तो यह है कि‍ स्‍त्री-पुरुष दोनों का स्‍वतंत्र अस्‍ति‍त्‍व है। स्‍त्री-पुरूष परस्‍पर पूरक होकर भी स्‍वतंत्र इकाइयां हैं, इसलि‍ए कि‍सी पर कोई चीज थोपनी नहीं चाहि‍ए, परंपरा के नाम पर भी, क्‍योंकि‍ परंपरा प्रवाह का नाम है, कि‍सी रूढ़ का नहीं। सि‍ंदूर या शाखा पहनने से रि‍श्‍ते में वो गर्माहट नहीं आएगी, जो परस्‍पर सम्‍मान और प्‍यार देने से होगी।

5 comments:

  1. परिधान, सज-सज्जा, सौंदर्य-विन्यास ये सब सभ्यता के अंग हैं तो उनसे जुड़ी आस्था, प्रतीक, विश्वास, श्रद्धा आदि संस्कृति के अंग। इसलिए इनको स्वीकार करना या अस्वीकार करना एक प्रगतिशील और वैज्ञानिक समाज में व्यक्तिगत रुचि या अरुचि का विषय है। समय के साथ ढेर पुरानी मान्यताएँ ढेर हो जाती हैं और नए मूल्य गढ़ते चले आते हैं।

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  2. मूल भावना आपसी समझ और प्रेम है।अगर वह नहीं है, तो बाहरी कर्मकाण्ड अधिक दूर तक रिश्तों को नहीं ले जाते

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  3. आज का युग नवयुग है।
    लोग भावनाओं में न बहकर बुद्धि और तर्क से काम लेते हैं।

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  4. मूल भावना आपसी समझ और प्रेम है।अगर वह नहीं है, तो बाहरी कर्मकाण्ड अधिक दूर तक रिश्तों को नहीं ले जाते

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