आने के लिए नहीं जाता कोई
शाम ढलती है
रात चुपचाप चली जाती है
सुबह नहीं लौटता वो ही
जो गुज़र चुका होता है
शाम ढलती है
रात चुपचाप चली जाती है
सुबह नहीं लौटता वो ही
जो गुज़र चुका होता है
आज कली, कल फूल है
फूल कल फिर नहीं खिलता
जो चला जाता है कहकर
कि लौट आऊँगा
वह पहले सा कभी नहीं मिलता
फूल कल फिर नहीं खिलता
जो चला जाता है कहकर
कि लौट आऊँगा
वह पहले सा कभी नहीं मिलता
जो इंतज़ार में टकटकी लगाए
बैठा रहता है बरसों
वो अपनी हँसी हँसता
और अपने दुःख से ही रोता है
लौटने पर उससे कब सब कहता है
बैठा रहता है बरसों
वो अपनी हँसी हँसता
और अपने दुःख से ही रोता है
लौटने पर उससे कब सब कहता है
कि जाने और आने के बीच
पहाड़ से दिन और समुन्दर सी रातों ने
कैसे उसे जीना सिखाया
कब थाम लिया अनजाने ही
सहारे के लिए कोई हाथ
पहाड़ से दिन और समुन्दर सी रातों ने
कैसे उसे जीना सिखाया
कब थाम लिया अनजाने ही
सहारे के लिए कोई हाथ
सब साबुत होने का दावा
नहीं कर सकता लौटने वाला
एक स्पर्श, एक निगाह या
छोटी सी किसी की याद
छुपा लाता है मन की परतों में
नहीं कर सकता लौटने वाला
एक स्पर्श, एक निगाह या
छोटी सी किसी की याद
छुपा लाता है मन की परतों में
फिर क्यूँ जाता है कोई
आने का वादा करके
कोई गुंजाइश बाक़ी क्यूँ रहे
जाना है जिसे वो चला जाए
देह से आत्मा की तरह।
आने का वादा करके
कोई गुंजाइश बाक़ी क्यूँ रहे
जाना है जिसे वो चला जाए
देह से आत्मा की तरह।
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" मंगलवार 22 अक्टूबर 2018 को लिंक की जाएगी ....http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद!
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" मंगलवार 23 अक्टूबर 2018 को लिंक की जाएगी ....http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद!
ReplyDeleteआपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन 145वीं जयंती - स्वामी रामतीर्थ और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
ReplyDeleteफिर क्यूँ जाता है कोई
ReplyDeleteआने का वादा करके
कोई गुंजाइश बाक़ी क्यूँ रहे
जाना है जिसे वो चला जाए
देह से आत्मा की तरह। सुंदर रचना 👌👌
गहरी अभिव्यक्ति ...
ReplyDeleteसच लिखा है ... समय का अंतराल नई यादें जोड़ देता है और लौटने वाला उन सब के साथ आता है ...
बहुत ही सुन्दर रचना
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर रचना ...
ReplyDeleteकितना गहरी चुभती है ये रचना। आंख की शर्म रहे, सच्चाई रहे, ये इतना मुश्किल तो नहीं!
ReplyDeleteअंतर तल से निकली गहरी खोज,
ReplyDeleteसच जाने वाला कहां फिर आ के भी वैसा ही आता है।
बहुत सुंदर रचना