Tuesday, August 28, 2018

आँखों में वो है बाक़ी...


भोर की तलछट में झाँका एक चेहरा।बहुत दिनों बाद शगुन की भीड़ में शामिल हुआ। नज़रें मिलीं, टिकीं फिर मुड़ गयी भीड़ की ओर।
ढोलक की थाप गूँजती रही। बुलाहट हुई ...जाओ कर लो चुमावन...पीछे से आवाज़ लगाई ..लो, ये लेकर जाओ। पॉकेट की तरफ़ हाथ बढ़ा....
क्यों जी...आपसे क्यूँ.....नहीं देखा मुड़कर, मगर टिकी निगाहों के ताप से मन में बताशे घुल रहे थे।आते-जाते कई बार देखना अच्छा लगता है। कोई ख़ास हो तो फिर ख़्याल रखना ही पड़ता है।

सारे रस्म चल रहे...लौट-लौट पूछना, देखना सबने देखा। ध्रुव तारे के उगने से सब तेज़ी में आए।बैठा रहा वो वहीं, निहारता सा। अधखुली आँखों में समेट ले जो एक सपना।
सारी हिदायतें फिर एक बार और फ़िक्र भी पुरानी सी। सब जाने को हैं। कोई कहता है उसे उठाओ, किसे...अरे वही जो तेरा ......
कोई सिर्फ़ देखने के लिए ही कभी सैकड़ों मील चलकर आ जाता था। उठो...जाओ...देख लो एक बार फिर। ढूँढ लो उन आँखों में वो है बाक़ी, जो मंदिर के पीछे आकर झाँक कर देखा करते थे...


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