पलाश से प्रेम है मुझे...बहुतों को होगा, क्योंकि यह है ही इतना खूबसूरत कि सबको अपनी ओर आकर्षित कर लेता है। अभी फाल्गुन-चैत के महीने में आप झारखंड में कहीं भी शहर से दूर निकल जाइए, पलाश के फूलों पर आपकी नजरें अटक जाएगी। आप मुरी से रांची आ रहे हों या रांची से जमशेदपुर के रास्ते में हो या फिर पलामू, गुमला हजारीबाग, कहीं, किसी तरफ भी निकल जाइए, जंगल की आग में खोकर रह जाइएगा।
चैत माह में वैसे भी प्रकृति अपने सुंदरतम रूप में होती है। उस पर टेसू का खिलना मंत्रमुग्ध करता है। सिंदूरी आभा से शोभित गांव-वन मोहित तो करते ही हैं। झारखंड के लोग तो शुरू से ही टेसू के रंग बनाकर होली का त्योहार मनाते आए हैं। यह हमारी झारखंडी संस्कृति का हिस्सा है। अब तो रंग और गुलाल भी बनने लगे हैं पलाश के फूल से।
बहरहाल, बात फिर पलाश की हो, तो बता दें कि हमारे झारखंड का राजकीय पुष्प ही पलाश है। हालांकि पलाश झारखंड ही नहीं, देश के विभिन्न हिस्सों में पाया जाता है। हरियाणा, राजस्थान, कर्नाटक, बंगाल, उड़ीसा में ज्यादा पाया जाता है। राजस्थान और बंगाल में इसके पत्ते की बीड़ियां भी बनाई जाती है। हमारे झारखंड में भी टेसू के पत्तों से दोना-पत्तल बनाया जाता है और छाल से रेशे से रस्सियां बनती हैं। पलाश के अनगिनत औषधीय उपयोग हैं।
बंगाल में भी खूब पलाश पाए जाते हैं। नवाब सिराजुद्दौला और क्लाइव के बीच जहां युद्ध हुआ था, उसे प्लासी का युद्ध कहा जाता है। कोलकाता से कुछ दूर स्थित इस स्थान में बहुत पलाश पाया जाता था जिस कारण इसे प्लासी युद्ध कहा गया। अरावली और सतपुड़ा के पर्वत श्रृंखलाओं में जब पलाश खिलते हैं तो तो लगता है जंगल में आग लग गई। कहते हैं कि एक समय में विदेश से लोग रक्त पलाश देखने के लिए आते थे। कबीर ने कहा है-
कबीर गर्व न कीजिए, इस जोबन की आस।
टेसू फूला दिवस दस, खंखर भया पलास।।
कबीर ने पलाश की तुलना एक ऐसे सुंदर सजीले नवयुवक से की है, जो अपनी जवानी में सबको आकर्षित कर लेता है, परंतु बुढ़ापे में अकेला रह जाता है। टेसू के साथ भी कुछ ऐसा ही है। बसंत से ग्रीष्म ऋतु तक, जब तक टेसू में फूल व हरे-भरे पत्ते रहते हैं, उसे सभी निहारते हैं। मगर बाकी के आठ महीनों में कोई उसकी तरफ देखता भी नहीं।
पलाश के कई नाम हैं। हिंदी में 'टेसू', 'केसू', 'ढाक' और 'पलाश', बांग्ला में 'पलाश' या 'पोलाशी', तेलुुुुगू में 'पलासमू', उड़िया में 'पोरासू', पंजाबी में 'केशु', गुजराती में 'खांकरो', कन्नड़ में 'मुत्तुंकदणिडका', मराठी में 'पलस', उर्दू में 'पापड़ा', राजस्थानी में 'चौर', 'छोवरो', 'खांकरा', संस्कृत में 'किंशुक', 'ब्रह्मवृत', 'रक्त पुष्पक' और अंग्रेजी में 'लेम ऑफ फाॉरेस्ट' के नाम से जानते हैं।
'किंशुक' का अर्थ होता है शुक यानी तोते के जैसा लाल चोंच वाला फूल जबकि अंग्रेजी में 'लेम ऑफ फाॉरेस्ट' का अर्थ है जंगल की आग। दोनों ही बातें सत्य है। फूल पलाश का ऐसा होता है कि तोते की चोंच नजर आता है और जब जंगल में पलाश खिल जाते हैं तो वाकई लगता है आग लग गयी हो। पलाश के गुणों का बखान तो कवियों ने खूब किया है। खिले हुए लाल फूलों से भरे पलाश की तुलना संस्कृत लेखकोंं ने युद्ध भूमि से की है। महाकवि कालिदास लिखते हैं-'' वसंत काल में पवन के झोंको से हिलती हुई पलाश की शाखाएं वन की ज्वाला के समान लग रही थीं और इनसे ढकी हुई धरती ऐसी लग रही थी, मानो लाल साड़ी में सजी हुई कोई नववधु हो।''
पलाश के वृक्ष में फरवरी से कोयले जैसी काले रंग के कलियों के गुच्छे दिखाई देने लगते हैं। मार्च के अंत तक पूरा वृक्ष लाल-नारंगी फूलों से लद जाता है। यह दस से 15 फूट ऊंचा वृक्ष है। इसमें एक डंटल में तीन पत्ते होते हैं। इसलिए इसे 'ढाक के तीन पात' कहा जाता है, जो मुहावरे के रूप में ज्यादा प्रचलित है। इस संबध में एक कथा है कि एक बार पार्वती जी ने तीनों आदिदेवों को शाप दे दिया। उनके शाप से ब्रह्मा जी पलाश, विष्णु जी पीपलऔर शिव जी बरगद बन गए। इसलिए पलाश को ब्रह्म वृक्ष भी कहा जाता है।
पलाश को पवित्र माना गया है। इसकी लकड़ी का हवन में उपयोग किया जाता है इसलिए इसे याज्ञिक कहते हैं। हिंदू धर्म के अनुसार यज्ञोपवित संस्कार में ब्रह़मचारी काे पलाश की लकड़ी का दंड धारण करना चाहिए। मगर आश्चर्य है कि पलाश के फूलों से पूजा प्रचलित नहीं है। शायद इसलिए कि यह गंधहीन होता है। मगर आंध्रप्रदेश के तेलंगाना में शिवरात्रि के दिन शिव को पलाश के फूल अर्पित करने की परंपरा है।
पुराणों में पलाश की कथा है कि भगवान शिव और पार्वती का एकांत भंग करने के कारण अग्नि देव को शाप ग्रस्त होकर पृथ्वी पर पलाश वृक्ष के रूप में जन्म लेना पड़ा। महर्षि बाल्मिकी ने भी रामायण में पलाश का उल्लेख करते हुए लिखा है कि विंध्याचल पर्वत के निकट एक वन में पलाश के फूलों को देखकर मोहित हो जाते हैं। वे सीता से कहते हैं- 'हे सीते', पलाश के वृक्षों ने फूलों की माला पहन ली। अब वसंत आ गया। पलाश को हिंदू धर्म के साथ-साथ बौद्ध् भी पवित्र मानते हैं। ऋगवेद में उल्लेख है कि पलाश के वृक्ष में ब्रहमा, विष्णु और महेश का निवास है। अत: ग्रह शांति के लिए भी इसका उपयोग किया जाता है।
लाल और नारंगी पलाश के अलावा सफेद और पीला पलाश भी पाया जाता है। सफेद पुष्प वाला पलाश औषधीय दृष्टिकोण से ज्यादा उपयोगी है। लता पलाश भी पायाा जाता है।
क्या यह शुक है - अर्थात किंशुक के टेढ़े-मेढ़े वृक्ष पर कचपचिया (बैब्लर) और शकरखोरा (सनबर्ड्) जैसे पक्षी आकर बैठते हैं, जिससे परागकण की प्रक्रिया संपन्न होती है। मगर मैंने पलाश पर तोते बैठे हुए कई बार देखे हैं। जब पलाश के फूल झरकर धरती को नारंगी रंग से भर देते हैं तो लगता है कि अंगारे दहक रहे हैं जमीन पर।
अगर पलाश के वन देखने तो तो अभी उपयुक्त समय है कि झारखंड आए जाए और शहर नहीं, गांवों का रूख किया जाए क्योंकि कई घर-आंगन के पास भी खिलते हैं पलाश। पलाश जिनके मन में खिलता है वह ये पंक्तियां जरूर मन ही मन दुहारते होंगे- '' जब-जब मेरे घर आना तुम, फूल पलाश के ले आना।''
2 comments:
लाल दहकते फूल माहोल बना देते हैं ...
और कवियों के दिल का तो राजा है ये फूल वैसे भी ...
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन आधुनिक काल की मीराबाई को नमन करती ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
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