Tuesday, March 20, 2018

आदि‍वासी जीवन का सार है सरहुल




त्‍योहार उल्‍लास का प्रतीक है। एक ऐसा अवसर जि‍समें परि‍वार के अलावा संगी-साथी और कई बार अनजाने लोगों के साथ मि‍लकर सौहार्दपूर्वक खुशी मनाई जाती है, जीवन का सुख लि‍या जाता है दैनि‍क कामों के अलग हटकर। और सरहुल एक ऐसा त्‍योहार है जि‍समें केवल उत्‍साह है, उमंग है और नृत्‍य है। हम सब जानते हैं कि‍ प्रकृति‍ पूजक होते हैं आदि‍वासी। उनके सभी मुख्‍य त्‍योहार प्रकृति‍ से ही जुड़े हैं क्‍योंकि‍ प्रकृति‍ ही उनके जीवन का आधार है अौर सरहुल शब्‍द का अर्थ ही है 'साल की पूजा'। यह पर्व नए वर्ष की शुरूआत का प्रतीक है क्‍योंकि‍ यह चैत्र शुक्‍ल तृतीया को मनाया जाता है। हि‍ंदू नवसंवत्‍सर की शुरूआत भी चैत्र शुक्‍ल पक्ष की प्रति‍पदा को होती है और इस दि‍न से नए वर्ष का प्रारंभ होता है। 


आदि‍वासी सरहुल के बाद ही नए फसल का उपयोग करते हैं क्‍योंकि‍ पाहन सात प्रकार की सब्‍जी और मीठी रोटी पहले धरती मां को अर्पित करते हैं और उसे ही प्रसाद के रूप में वि‍तरि‍त कि‍या जाता है।  सरहुल झारखंड ही नहीं, बंगाल, उड़ीसा और मध्‍य भारत के आदि‍वासी क्षेत्रों में पूरी भव्‍यता के साथ मनाया जाता है। 


चैत माह में पूरे झारखंड की सुंदरता देखने योग्‍य होती है। सबसे पहले साल के सभी पेड़ पर्ण वि‍हीन हो जाते हैं और फूल के मंजर आते हैं। फि‍र सखुआ के फूलों की गंध दूर-दूर तक फैल जाती है। अब पेड़ों में गुलाबी-लाल पत्‍ते आते हैं। इसी समय जंगल में पलाश के फूल भी भर जाते हैं। आम के पेड़ पर मंजरि‍यां खि‍लती हैं और मधुमक्‍खि‍यां फूलों का रस जमा करती हैं। पर इन सबमें सबसे महत्‍वपूर्ण है साल या सखुआ का वृक्ष। 



सखुआ के पेड़ के महत्‍व के पीछे कई बातें और कहानि‍यां है जो हमें बताती है कि‍ आदि‍वासी जीवन में इस पेड़ की इतनी अहमि‍यत क्‍यों हैं।  कहा जाता है कि‍ साल वृक्ष की आयु बहुत अधि‍क होती है। ' हजार साल खड़ा, हजार साल पड़ा हजार साल सड़ा'। इसके पत्‍ते से दोना-पत्‍तल बनता है। सखुआ के गोंद से धुवन बनाया जाता है जो पूजा और पर्यावरण शुद्ध करने के काम आता है। इनकी लकड़ि‍यां जलावन के काम आती है और सखुआ लकड़ी से बने समान वर्षों तक टि‍कते हैं।

यह उपयोग तो है ही और दूसरी वजह है सखुआ को लेकर लोकजीवन में प्रचलि‍त मौखि‍क कहानि‍यां। मुंडा कहानि‍यां यह बताती है कि‍ मुंडाओं का अन्‍य जाति‍ से भयंकर युद्ध हुआ। इसमें अनेक लोग शहीद हो गए। उनको मसना में गाड़ दि‍या गया और वहीं कुछ सखुआ के पौधे उग आए। उन्‍होंने मान लि‍या कि‍ यह हमारे शहीद ही हैं जो पेड़ और फूल-पत्‍ते बनकर आए हैं। शहीदों की याद में सरहुल मनाना शुरू कि‍या।

एक दूसरी कथा है कि‍ मुंडाओं और दि‍कुओं में अचानक युद्ध हुआ। सि‍ंगबोंगा के आदेश पर मुंडाओं ने सखुआ के फूल-पत्‍तों से अपने को सजा लि‍या ताकि‍ आसानी से दि‍कुओं और मुंडाओं की पहचान हो सके। इस युद्ध में मुंडा वि‍जयी हो गए। इसी की स्‍मृति‍ में सरना स्‍थल में सखुआ कि‍ टहनि‍यां लगाई जाती हैं। ऐसी ही एक कथा है कि‍ जब वि‍देशि‍यों से मुंडाओं का युद्ध हो रहा था तो वे लोग सि‍ंगबोंगा के कहने पर साल के पत्‍तों में छुप गए और वि‍देशि‍यों को उनका कुछ पता नहीं चला। फलस्‍वरूप मुंडाओं की जीत हुई।

चौथी कथा महाभारत से है। मुंडा कौरवों की तरफ से युद्ध कर रहे थे। अनेक मुंडा योद्धा वीरगति‍ को प्राप्‍त हुए। इनकी लाश को साल के पत्‍तों से ढककर छोड़ दि‍या गया, ताकि‍ युद्ध की समाप्‍ति‍ के बाद उनका अंति‍म संस्‍कार कि‍या जा सके। युद्ध समाप्‍ति‍ के बाद पाया गया कि‍ उनकी लाशें सड़ी नहीं। तब से सरहुल मनाया जाने लगा।

एक और मुंडारी लोककथा है कि‍ सरहुल धरती की बेटी बि‍ंदी के मृत्‍युलोक से वापसी का त्‍योहार है। धरती की इकलौती बेटी एक दि‍न नहाने गई और वहीं से गायब हो गई। पृथ्‍वी दुखी रहने लगी और धरती में पतझड़ का मौसम आ गया। बहुत खेजबीन के बाद पता लगा कि‍ बि‍ंदी पाताल में है। बि‍ंदी को वापस भेजने के दूतों के अनुरोध पर पाताल के राजा ने कहा- कि‍ एक बार यहां आने के बाद कोई नहीं लौटता। बहुत अनुरोध के बाद पाताल के राजा ने आधो समय पृथ्‍वी पर रहने की अनुमति‍ दी। तब से जब बि‍ंदी वापस आती है तो धरती हरी-भरी हो जाती है और हरि‍याली छा जाती है।

जो भी हो, अब तो प्रकृति‍ पूजा के साथ-साथ शोभायात्रा भी नि‍काली जाती है सरहुल में। यह त्‍योहर पूरे परि‍वार के एकत्र होने का है। महीनों से तैयारि‍यां चलती है। घर की साफ-सफाई से लेकर नए कपडों की खरीददारी तक। लाल पाड़ की सफेद साड़ी पहन, माथे पर सरई फूल खोंस कर जब युवक-युवति‍यां ढोल-नगाड़े और मांदर की थाप पर सामुहि‍क नृत्‍य करते हैं, तो वह दृश्‍य स्‍मरणीय हो जाता है। कोल्‍हान में इस पर्व को ' बा पोरोब' कहा जाता है, जि‍सका अर्थ फूलों का त्‍योहार होता है।
प्रकृति‍ तो सरहुल के आने का नि‍मंत्रण देती ही है, सरहुल के गीतों में भी बहुत प्‍यारे ढंग से प्रकृति‍ की आगवानी की जाती है। 

'' आओ सखुआ के फूल

आओ उतर आओ
आाओ नई-नई कोंपले
आओ उतर आओ ''


पूजा के एक दि‍न पहले पाहन राजा और पाईनभोरा उपवास कर पंजरी मि‍ट्टी पूजा के लि‍ए लाते है। गांव के नदी या तालाब से नए घड़े में पानी भर कर पाईनभोरा सरना स्‍थल में रखता है। दूसरे दि‍न पाहन राजा, पाईनभोरा और और ग्रामीण उपवास कर अपने-अपने घर में पूजा कर के सरना स्‍थल पर लोटा से पानी लेकर जाते हैं। फि‍र पूजा के बाद अच्‍छी खेती और गांव-समाज की खुशहाली के लि‍ए प्रार्थना की जाती है। तीसरे दि‍न फूलखोंसी की जाती है। मान्‍यता है कि‍ सरई फूल को घर के छप्‍पर पर लगाने से सुख-समृद्धि‍ में वृद्धि‍ होती है। 

सच है कि‍ आदि‍वासी जहां रहते हैं, पर्यावरण को बचाने का संदेश देते हैं। अपने रहन-सहन और त्‍योहारों के माध्‍यम से बार-बार बताते हैं कि‍ हम प्रकृति‍ में बने रहे, प्रकृति‍ से जुड़े रहे। आने वाली पीढ़ी को स्‍वच्‍छ वातावरण और शुद्ध पर्यावरण दे सकें हम इसलि‍ए जरूरी है कि‍ हम आदि‍वासि‍यों की मौलि‍ेक मनोवृति‍ को अपना लें।





3 comments:

Sweta sinha said...

लोक संस्कृति से परिचय बहुत अच्छा लगा👌👌👍

Unknown said...

written very nicely about chotanagpur culture..

राजा कुमारेन्द्र सिंह सेंगर said...

आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन जल बिना जीवन नहीं : ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...