Friday, September 16, 2016

कास का जंगल


कास का घना जंगल उगता है इन दि‍नों
उसकी छाती पर
उम्र की सीढ़ि‍यों पर रूका आदमी
अचानक दौड़ने लगा है
थककर गि‍रता है, गि‍नता है इन दि‍नों
बाकी बची सीढ़ि‍यां
वक्‍त को बांधी हुई मुट्ठि‍यां खुल गई हैं
अब गि‍रती-चढ़ती सांसों का हि‍साब
रखने लगी हैं ऊंगलि‍यां
मेरे हाथ
टटोलते हैं घने जंगल में धड़कन
अब सीने पर सुकून नहीं
कलाई पर परखती हूं नब्‍ज की चाल
बचाने लगी हूं
खाने से थोड़ा नमक थोड़ा चीनी
घबराती हूं, आदत हो गई है
साथ-साथ रहे हैं बरसों सोचकर
समझती हूं
कास के जंगल से डरने लगे हो तुम
और अब जब वक्‍त
झुर्रियों के रूप में तुम्‍हारे चेहरे पर
उतरने लगेगा
भूलने लगोगे दर्पण देखना
छोड़ दोगे इन आंखों में अपनी छवि‍ ढूंढना
पर तुम्‍हें पता होना चाहि‍ए
उम्र के इस पड़ाव पर आकर
जब सारे रंग जी चुकी मैं
सफ़ेद रंग भाता है बहुत मुझको
खोने दो मुझको कास के इन जंगलों में
जाने कि‍तनी बरसातें गुजारी
हृदय की कालि‍मा धुल गई जब
तब ये धवल रंग मि‍ला है तुमको ।

4 comments:

  1. मैं तो विस्मित रह गया आपके इस काश के जंगल में विचरण कर के बहुत ही अद्भुत लिखती रहे शुभकामनाएं आपको

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (19-09-2016) को "नमकीन पानी में बहुत से जीव ठहरे हैं" (चर्चा अंक-2470) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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