चीड़ देवदार से घिरा झील का किनारा |
कालाटोप से करीब 10-12 किलोमीटर की दूरी पर है खज्जियार। दोपहर ढलने लगी थी पर हम निश्चिंत थे क्योंकि पहाड़ों में लगभग आठ बजे तक उजाला होता है। बहुत सुना था खज्जियार के लिए। इसे मिनी स्विट्रलैंड कहा जाता है। मेरा मन था कि वहां भी एक-दो दिन रूक जाऊं। फिर सोचा, एक बार देख तो आऊं। आठ किलोमीटर की दूरी पार किए होंगे कि पता लगा बहुत दूर तक जाम है। वापस आने वाले बाेलते निकले कि आज तो जाना मुमकिन नहीं। पहुंचते रात हो जाएगी।
वादियाें में हम |
हमें बड़ा अजीब लगा। बस दो दिन के लिए हम और थे यहां। कल भी नहीं जा पाए, और आज भी ये हाल है। करीब दो किलोमीटर पहले ड्राइवर ने गाड़ी साइड कर लगा दी। बोला फंस जाएंगे सो कोई फायदा नहीं। हमलोग रास्ता खुलने का इंतजार करने लगे। ध्यान आया कि आज रविवार है इसलिए इतनी भीड़ है। पहले पता हाेेता तो अााज नहीं जाते, हम चंबा ही चले जाते।
आंखों में बस जाने वाला दृश्य |
मगर अब तो फंस गए। कोई रास्ता न देख तय किया कि ये दो किलोमीटर हम पैदल ही चले चलते हैं। जाम खुलने पर ड्राइवर आ जाएगा गाड़ी लेकर वहीं। फिर क्या था, हम चल पड़े पैदल। खूबसूरत नजारेऔर ठंढ़ी वादियों में पैदल चलना सुखदायक ही होता है। रास्ते में वाकई जाम लगी थी और कारण बस इतना कि लोग सड़क किनारे जहां तहां गाड़ी पार्क कर चल दिए थे। ऐसी परेशानियां न हो इसका ख्याल हर पर्यटक को रखना चाहिए और पुलिस प्रशासन को मुस्तैद भी रहना चाहिए।
एक फैमिली फोटो हिमाचली ड्रेस में |
खैर, कुछ दूूर पहले से ही हमें खूब शोर सुनाई पड़ने लगा। अनुमान सही था कि काफी लोग हैं यहां। मैदान में नीचे उतरते ही बहुत खूबसूरत नजारा दिखलाई पड़ा। सामने एक झील और चारों तरफ चीड़ एवं देवदार के ऊंचे-ऊंचे पेड़। इसीलिए खज्जियार को दुनिया के 160 मिनी स्िवट्जरलैंड में से एक माना जाता है। स्विस राजदूत ने यहां की खूबसूरती से आकर्षित होकर 7 जुलाई 1992 को खज्जियार को हिमाचल प्रदेश के मिनी स्िवट्जरलैंड की उपाधि दी थी। यहां होटल देवदार के पास इस आशय का एक प्रमाण पत्र लगाया गया है। इसमें मिनी स्विस दर्जा के साथ ही एक पथप्रदर्शक भी लगाया गया है। वैसा ही जैसा स्विटजरलैंड की सड़कों पर लगता है। यहां पर लिखा गया है- स्विटजरलैंड 6194 किलोमीटर। तीन किलोमीटर की परिधि में है हरा मैदान।
खज्जीनाग मंदिर के बाहर |
मैदान में उतरते ही सबसे पहले खज्जी नाग का मंदिर है, जिसकी बड़ी मान्यता है। मंदिर के मंडप के कोनों में पांच पांडव की लकड़ी की मूर्तियां स्थापित हैं। माना जाता है कि अज्ञातवास के समय पांडव यहां आकर रहे थे।
मंदिर के अंदर काष्ठ प्रतिमा |
पांडव की प्रतिमा |
मंदिर परिसर में यहां का इतिहास लिखा हुआ है, जिसे जानना काफी दिलचस्प होगा। सदियों पुरानी बात है। चंबा जिले में राणे हुआ करते थे। उनकी नजर लिली नामक गांव के सामने पहाड़ पर जलती रोशनी पर पड़ी। खजाना समझकर उन्होंने उसे खोदा तो वहां से चार नाग देवता प्रगट हुए। चारों को पालकी में डालकर वहां से लाया गया। नाग देवताओं ने कहा- जहां से हमारी पालकी भारी हो जाएगी वहीं से हम अलग-अलग हो जाएंगे। सुकरेही नामक स्थान पर सबसे पहले पालकी भारी हुई। वहींं से सब अलग-अलग हो गए। चारों भाइयों में सबसे बड़ेे क्रमश: नघुई, जमुहार, खज्िजयार व चुवाड़ी में बस गए।
बनी के साथ मेरा हनी |
खज्जियार में पहले सिद्ध बाबा का स्वामित्व था। खज्जिनाग ने उन्हें अपने बड़े भाई की मदद से सरपासे के खेल में हराया और यह जगह जीत ली। सिद्ध बाबा ने हार के बाद कहा कि तू अब यहां ''खा'' और ''जी''। तभी से इसका नाम खज्जिनाग पड़ा और इस जगह का खज्जियार। खज्जिनाग का पौराणिक नाम पूंंपर नाग था।
हरियाली और बड़ा सा तश्तरीनुमा मैदान |
यहां बनी झील भी खुद में कई रहस्य समेटे हुए है। कहते हैं यह झील अन्तहीन है और शेषनाग के अवतार खज्जिनाग स्वयं इसमें वास करते हैं। स्थानीय लोगों का दावा है कि कई लोगों ने इसे साक्षात देखा भी है। अब भी किसी शुभ कार्य से पहले स्थानीय लोग यहां हाजिरी लगाते हैं। इस झील में मणिमहेश यात्रा के दौरान पवित्र स्नान भी किया जाता है।
अमित्युश और मैं |
हम तीनों |
अभिरूप की शरारतें |
एक लोककथा है कि एक बार एक गड़ेरिया जिसेे स्थानीय भाषा में गद्दी बोला जाता है, यहां से गुजरते वक्त उसे प्यास लगी। वह झील का पानी पीने लगा तो उसके कान की बालियां यहां गिर गई। वह चलते-चलते चंबा के सुल्तानपुर पहुंच गया। वह वहां के पनिहार पर पानी पीने लगा तो उसके हाथ में दोनों बालियां आ गई।
आहा....क्या नजारे हैं मेरे साथ |
आदर्श और अभिरूप |
मैदान के पिछले भाग से लिया गया क्लिक |
मुझे तो कहानियां वैसे भी आकर्षित करती हैं और जब इतना कुछ जानने को मिल जाए तो घूमने का मजा दुगूना हो जाता है। हमने वहां से दूर तक का नजरा लिया और अब नीचे झील की ओर चल दिए। बेहद खूबसूरत जगह। आनंददायक, सुकूनप्रद। लोग टहल रहे हैं, गप मार रहे हैं। कुछ खेल रहे हैं। उधर दूर में कोई पैराग्लाइडिंग कर रहा है तो कोई पारदर्शी बैलून में बैठ लुढ़क रहा है। चने-खोमचे वाले भी घूम रहे थे। मैदान में इधर बहुत भीड़ थी सो हम झील के उस पर चले गए। टहलने का अपना आनंद। इतना खूबसूरत, घास का मैदान। ठंढ़ी हवा।
ये है आधे मैदान का दृश्य |
शाम ढल गई... |
हम बहुत देर रहे यहां। खेलते, घूमते।अंधियारा घिरने लगा था। हम थक भी बहुत गए थे। अब वापस होटल की तरफ....वापसी में नीचे चंबा शहर दिख रहा था। पहाड़ों पर रौशनी बहुत खूबसूरत लगती है। हम सारे रास्ते नीचे देखते-देखते लौट आए।
क्रमश : ....
गज़ब का वर्णन और सुंदर तस्वीरें.. मज़ा आ गया।
ReplyDeleteआपकी ब्लॉग पोस्ट को आज की ब्लॉग बुलेटिन प्रस्तुति अंतरराष्ट्रीय योग दिवस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। सादर ... अभिनन्दन।।
ReplyDeleteBahut bahut dhnyawad aur aabhar
Deleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (22-06-2016) को ""वर्तमान परिपेक्ष्य में योग की आवश्यकता" (चर्चा अंक-2381) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
Aapka dhnyawad aur aabhar
ReplyDelete'कुछ अलग सा' पर आपका सदा स्वागत है
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