Thursday, September 4, 2014

झील पर बर्फ......


बर्फ गि‍रती रही रात भर, दर्द उतरता रहा। आंखों ने देखा, स्‍वाद जि‍ह्वा में घुल गई.... हवाओं ने कानों में पहुंचाए लफ़्जों के श़रारे...जहर उतरा दि‍ल में....लहुलुहान सब कुछ....

दर्द ने रास्‍ता बदला, शि‍राओं से होते हुए पैरों को चूम, ठहर गया। कराहते रहे सारी रात, लाल रौशनी के साए में चमकता रहा बदन.....कंचन सा, जैसे बर्फ की चोटि‍यों में धूप ठहरती है....कोई दर्द पीता रहा...कोई लुभाता रहा...जीवन का भरम ऐसा कि‍ रात गाती रही....बर्फ गि‍रती रही।

उलझे बालों पर कंघा करती रही उंगलि‍यां, फंसती रही जिंदगी.....हम सुलझाते रहे उलझे धागे और तुम...फरि‍याते रहे दर्द और प्‍यार का रि‍श्‍ता....

भागती छायाओं को बांधकर रस्‍सी, खींचते हैं अपनी ओर...एक गहरी सांस फेंकते हैं..गर्म.....सफ़ेद भाप नजर आती है। बारि‍शों के बाद बर्फ के फाहों को हमसे हो गई मोहब्‍बत...मि‍लती है गले....सि‍हराती है तन और पि‍घल जाती है।

ज्‍यों कोई चूम ले शि‍द्दत से और अगले ही पल धकेल दे दूर.......अब नफरत जुबां से आंखों में...आंखों से हाथों से उतर रही है.....

झील पर बर्फ जमती जा रही....झरती जा रही...सोने सा धूप सहला रहा....यूं बालों को समेटो नहीं.....बि‍खर जाने दो.....कुछ तो झरेगा..पानी बनकर.....

2. (उम्र की नदी का इक क़तरा )

4 comments:

  1. ये कशिश जो आपकी कलम है … बस हुनर नायाब समझो :)



    स्वागत है मेरी नवीनतम कविता पर
     रंगरूट

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  2. वाह...बहुत बढ़िया लिखा है आपने

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