Thursday, May 9, 2013

मैं और घास....


कुछ भी अंतर नहीं
मुझमें व घास में
पांवों तले दबती है
कुम्‍हलाती है
जिंदगी की मुराद पाती है

दो बूंद बारि‍श सा स्‍नेह पाकर
हरि‍याती है
खि‍लखि‍लाती है
तन के, सर उठाती है

इसे समतल बनाने को
फि‍र चला देते हो तुम
कांटों भरी मशीन
कट जाती है घास
मुरझा जाती है आस

चूमकर फि‍र पांवों को
लि‍पट-लि‍पट सी जाती है
अपने वजूद का
अहसास दि‍लाती है

कुछ भी अंतर नहीं
मुझमें व घास में
पांवों तले दबती है
कुम्‍हलाती है
जिंदगी की मुराद पाती है......


तस्‍वीर--साभार गूगल

8 comments:

  1. कुछ भी अंतर नहीं
    मुझमें व घास में
    पांवों तले दबती है
    कुम्‍हलाती है
    जिंदगी की मुराद पाती है
    स्त्री मन की व्यथा को जताती मार्मिक रचना.

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  2. नारी मन की व्यथा को चित्रित करती बहुत मर्मस्पर्शी रचना..

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  3. बहुत ही सुन्दर भाव की प्रस्तुति,आभार.

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  4. मार्मिक रचना ,कुछ भी अंतर नहीं मुझमें व घास में पांवों तले दबती हैकुम्‍हलाती है,जिंदगी की मुराद पाती है

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  5. bahut sundar ... Aisa hi hota hai Naari ka man

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