तमाम जवानी
अपनी बुलेट फटफटाते
जब वो शहर से गुजरते थे
राह में चलने वाले
इज्जत से देते थे रास्ता
और हर अपराधी
मांगता था पनाह
घर वाले भी
बड़े अदब से आगे-पीछे घूमते थे
जब वो
दिखाते थे अपना पुलिसिया रोब...
मगर जब
रिटायर हुए
सारी ठसक हवा हुई
अब सब्जी का झोला
हाथ में टांगकर
मोलभाव करते नजर आते हैं
घर में भी किसी के पास
वक्त नहीं उनके खातिर
सारा दिन
टिन-डब्बे लेकर
ठोंकते-पीटते है
बनाते हैं फिर बिगाड़ते हैं
बस
खाने के वक्त बड़ी मुस्तैदी से
मेज पर बैठ जाते हैं
जैसे एकमात्र कार्य
बचा हो उनके खातिर...
और सारा दिन
ओसारे में कबाड़ के साथ
अपनी बची हुई सांसों को
जीने की रस्म निभाते हैं..
क्या बुढ़ापा इतना बुरा होता है
कि सारे अपने पराये बन जाते हैं
हमारी जिंदगी में भी आएगा वो दिन
हम सब ये बात क्यों भूल जाते हैं ?????
आपकी इस सुन्दर प्रविष्टि की चर्चा कल २/१०/१२ मंगलवार को चर्चा मंच पर चर्चाकारा राजेश कुमारी द्वारा की जायेगी आप का स्वागत है
ReplyDeleteऐसा क्यों होता है पता नहीं ,एक अव्यक्त दर्द को रेखांकित करती रचना
ReplyDeleteसमय होत बलवान |
ReplyDeleteमार्मिक ||
ReplyDelete
ReplyDeleteहमारे वक्त को खंगालती बेहद सशक्त रचना .
आम तौर पर
ReplyDeleteजवानी में जो
रास्ते हम
दूसरों को
दिखाते हैं
अपने लिये
बनाते हैं
बुढा़पे मे वोही
रास्ते चलने
के लिये
हमारे सामने
आते हैं !
bas kahne layak kuchh nahi bachta...
ReplyDeleteमुखड़े जो थे अरमान भरे
रँगों के निशाँ हैं खोते हुए
http://shardaarora.blogspot.in/2011/06/blog-post_21.html
बुढ़ापे का दर्द जाने कौन ...
ReplyDeleteजिसने सहा !बाकि मौन !
शुभकामनायें!
सार्थक रचना!!
ReplyDeletevery touchy! keep writing!
ReplyDelete