Thursday, July 19, 2012

अगस्‍त्‍य मुनि और दादाजी

अगस्‍त्‍य मुनि.....अगस्‍त्‍य मुनि
बुदबुदाने लगते थे वो बूढ़े होंठ
जब भी
आकाश में बादलों की गर्जन होती...

बि‍जली और बरसात का संगम
जब भी होता
ओसारे पर एक बोरसी
बिन कहे ही दादी सुलगा देती थी

एक मोटी लोई ओढ़कर
हाथ सेंकते और
बारि‍श की छम-छम सुनते
लगातार....घंटो
आसमान की ओर नि‍गाहें कर
होंठों ही होंठों में बुदबुदाते दादाजी
अगस्‍त्‍य मुनि.....अगस्‍त्‍य मुनि

मुझे याद है
इतनी भी ठंड नहीं होती थी
कि‍ जरूरत पड़े लकड़ी सुलगाने की
मगर

जब तक बरसता पानी
वो कभी घर के अंदर नहीं आते
मुझे नहीं पता कि
बारि‍श और अगस्‍त्‍य मुनि में
क्‍या नाता है

पर
जब भी तेज गड़गड़ाहट के साथ
होती है बारि‍श
अनजाने ही मेरे होंठ भी बुदबुदाने लगते हैं
अगस्‍त्‍य मुनि....अगस्‍त्‍य मुनि

5 comments:

  1. ऐसा ही होता है बचपन ... बरसातें भी ऎसी ही ... और जिंदा यादें भी ऐसी ही ...

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  2. बहुत सुन्दर.............

    अनु

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  3. मुझे तो ठीक से समझ नहीं आया क्या कहना चाह रही हैं आप लगता है दुबारा आना होगा आपकी पोस्ट पर इसे समझने के लिए तब तक इसे मेरी हाजिरी मान लीजिये और समय मिले कभी तो आयेगा आप मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है
    http://mhare-anubhav.blogspot.co.uk/

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  4. बहुत ही सुन्दर सजीव प्रस्तुति
    बारिश में छतरी लिए ..बीते दिन याद आने लगे..

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  5. सुन्दर पंक्तियाँ

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