Monday, January 23, 2012
विषवमन
जीवन में एक नहीं
कई एक ऐसे क्षण आए
जब लगा
एक ऐसे चेहरे की
तलाश है
जो अपना सा लगे
और
जिसके कंधे पर सर रखकर
आंसू बहा लूं
दिल का सारा बोझ उलटकर
राहत पा लूं...
सच कहती हूं
इन क्षणों में
तुम्हारी बहुत याद आती है
मगर
साथ-साथ चली आती है
कुछ कड़वी यादें
और तुम्हारी बातों में लिपटा जहर
जो मेरे प्रेम के बदले
कभी दिया था तुमने
..और मैं रूक जाती हूं
तब भी
जब तुम अपना हाथ
बढ़ाते हो
और मैं उसे थामने के बजाय
बचकर निकल जाती हूं
क्योंकि
सुन रखा है जमाने से
कि इंसानी फितरत
नहीं बदलती कभी..
तो फिर
मैं नीलकंठ तो नहीं
जो सब जानकर भी
प्रेमरूपी जहर
हलक में उतार लूं..
अब तो मुझे भी
तुमसे.....तुमसा ही
विषवमन की आदत हो गई है.....।
bautiful poem
ReplyDeletebeautiful expression
बहुत सुन्दर रही आपकी यह रचना!
ReplyDeleteसुन रखा है जमाने से
ReplyDeleteकि इंसानी फितरत
नहीं बदलती कभी..very nice.
मैं नीलकंठ तो नहीं
ReplyDeleteजो सब जानकर भी
प्रेमरूपी जहर
हलक में उतार लूं..
अब तो मुझे भी
तुमसे.....तुमसा ही
विषवमन की आदत हो गई है.....।waah
प्रेम वो भी जहर रुपी ... क्या सचमुच वो प्रेम ही है ... ?
ReplyDeleteवाह ...बहुत खूब
ReplyDeleteवाह क्या खूब अन्दाज़ है।
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