कोई आज ये कहे आपको....होली आ रही है। क्या इरादा है इस बार। आप गहरी सांस लेंगे और बोलेंगे...भई, अब कौन खेलता है पहले सी होली। लोगों से मिलना-जुलना होगा, अबीर लगा लेंगे। हो जाएगी होली। इस जवाब के साथ ही दीर्घ श्वांस लेकर कहेंगे आप...होली तो हमारे जमाने में होती थी। असल फगुआ का जो आनंद हमने उठाया है, वह आज की पीढ़ी क्या जाने। तैर गया न आपकी आंखों में भी आपका बचपन।
कोई ऐसा इंसान नहीं होगा जो रंगों के त्योहार होली के नाम से अपने बचपन को आंखों में उतार नहीं लाता। होली और बचपन का अनूठा संगम है। यह सत्य है कि जितना आनंद बच्चों को होली में आता है, वह उम्र बढ़ने के साथ-साथ कम होता जाता है। और आधुनिक समाज के आत्मकेंद्रित लोग, फ्लैट संस्कृति वाले होली तो मनाते हैं, मगर वो धमाल नहीं होता बचपन वाला।
होली, टेसू से बने रंगों की होली, लाल-हरे-पीले रंगों की होली, कीचड़ की होली। गली-गली घूमती युवाओं की टोली। कभी होंठों पर गाली तो कभी खेलते कपड़े फाड़ के होली। यह थी झारखंड-बिहार की होली, जो अब कहीं खो सी गई है। फागुन के चढ़ते ही होली की उमंग अपने परवान पर होती थी। चारों तरफ गलियों में जोगीरा स र र र र र की धुन के साथ-साथ्ा 'काला-पीला हरा-गुलाबी, कच्चा पक्का रंग' और 'रंग बरसे' जैसे फिल्मी गानों की धुन में लोग पागल से हो जाते थे।
सबसे पहले होलिका दहन की तैयारी होती थी। वो भी पूरे जोश के साथ। झारखंड-बिहार के गांवों में चलन था कि प्रत्येक घर से लकड़ी मांग कर इकट्ठा किया जाता था और शाम को लग्न अनुसार होलिका दहन आयोजित होता था। गांव के सभी युवक ढोल-मजीरे के साथ गली-गली गीत गाते घूमते थे - सत लकड़ी दे सत कोयला दे। और प्रत्येक घर से गृहिणी बाहर आकर उन युवकों को सात लकड़ी देती थी। तब गैस चूल्हा नहीं आया था। हर घर में लकड़ी के चूल्हे में खाना बनता। लोग खुशी-खुशी होली की तैयारी करते। युवक कई बार शरारत भी करते थे।
सप्ताह भर से शाम को मंदिर में लोग एकत्र होकर फगुआ गाते । वो लंबी तान छिड़ती कि महिलाएं खिड़की से कान लगा मजा लेने से खुद को न रोक पाती। बड़ा मजेदार दिन-रात होता था तब। दूसरे दिन सुबह से होली का जो रंग चढ़ता कि पूछिए मत। बच्चे-बड़े सब सराबोर। भंग और ठंडई का दौर पर दौर चलता। क्या छोटा क्या बड़ा। देवर-भाभी, जीजा-साली तो इस दिन का इंतजार कब से करते थे और महीनों तक फगुआहट की मुस्कराहट होंठो में दबाए रहते। खूब-खूब रंग खेला जाता। यहां तक कि मिट्टी-कीचड़, मोबिल तक का इस्तेमाल करते लोग। घर में छुपने वालों को घर से खींचकर निकाला जाता और फिर....... उफ...जो दुर्गति होती कि पूछिए मत। लोग उन्मत हो जाते। थक-थक जाते। फिर ये रंगों का खेला दोपहर ढलते तक समाप्त हो जाता। सब लोग वापस घर में नहाते-खाते और शाम की तैयारी फिर शुरू।
शाम यानी गुलाल का समय....छोटों को आर्शीवाद देने और हम उम्र से गले मिलने का वक्त। लोग नए कपड़े पहनकर एक-दूसरे के घर जाते। बड़ों के पांव पर गुलाल लगाते। तरह-तरह के व्यंजन सबके घरों में बनते। तब कानफाड़ू लाउडस्पीकर में बजता-' बड़ो घर के बेटी लोग' और 'आज न छोड़ेंगे.....खेलेंगे हम होली',, सुनकर लोग नाराज नहीं होते- मंद-मंद मुस्कराकर आनंद लेते थे।
मगर अब न वो रंग रहा न उत्साह। न अब वो भाईचारा है न उमंग। लोग होली को पानी की बर्बादी मानते हैं। आज की नई पीढ़ी ई होली खेलने में विश्वास करने लगी है। लोग मेल, फेसबुक, व्हाटसएप, इंस्टाग्राम आदि में होली की शुभकामनाएं भेजकर सोचते हैं कि होली मना ली। अब कोई किसी रंग से डरने वाले को घर से घसीटकर बाहर नहीं लाता। हजार ना-ना के बाद भी बिना रंगाए कोई नहीं छुटता था। लोग अपने मनमुटाव इसी दिन दूर करते। कोई अनजाना नहीं होता होली के दिन। खींच-तान और रंग लगाने के चक्कर में लोगों के मन का मैल कैसेे धुल जाता था, किसी को पता नहीं चलता था।
कितना बदल गए हैं हम। त्योहार के नाम पर रस्म निभाने के लिए होली मिलन समारोह कर पर्व की खानापूर्ति की जाती है। लोग नियत समय पर एक जगह एकत्र होते हैं और एक-दूसरे को गुलाल लगा देते है। इसमें वो उमंग और उत्साह नहीं जो घर के आंगन में बाल्टी भर-भर कर उड़ेलने में और बच्चों को पिचकारी और गुब्बारे फेंक कर मारने में आता था। न उम्र देखी जाती न ओहदा, न जात-पांत। सब एक हो जाते थे। एक जैसे रंगों में रंगे और कोई साफ दिखे तो उसे अपने जैसा बनाने में तत्पर। लोग डूबकर फाग गाते, झाल, ढोलक और मंजीरा बजाते हैं। अब वो दिन वाकई गुम हो गए। होली में रंग खेलना पानी की बर्बादी लगता है तो गीले रंग से त्वचा के खराब होने का डर सताता है।
हालांकि यह बात सच है कि पहले लोग प्राकृतिक तरीके से होली खेलते थे। टेसू और अन्य फूलों से रंग बनाते थे। गेंदा और टेसू को उबालकर, हल्दी-बेसन, मेंहदी आदि से प्राकृतिक रंग बनाया जाता था। इससे त्वचा को हानी नहीं पहुंचती थी। मगर यह ही कारण नहीं है कि होली मनाने वालों की कमी हो गई है। दरअसल हर कोई आत्मकेंद्रित है और होली में जो मन मुताबिक मस्ती किया जाता है उसे आज का सभ्य समाज फूहड़ता कहता है। वास्तव में यह फूहड़ता नहीं थी और न है।
आप एक बार जी खोल कर चेहरे पर लगा भद्रजनों का नकाब हटाकर वही करिये जो आपका मन कहता हो....जनाब खुद को बदला हुआ पाएंगे। होली की मस्ती की धमक दिल में ऐसी बसती है कि मरते दम नहीं भूलती। तो इस बार होली है है है...........बचपन वाली होली।
28 फरवरी 2018 को 'इंडियन पंच' के संपादकीय पृष्ठ में प्रकाशित
4 comments:
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन राष्ट्रीय विज्ञान दिवस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
होली की पुरानी यादों में लौटा लिया आपकी पोस्ट ने ...
होली की बधाई हो ....
बचपन की होली....
बहुत खूब।
वाह!!बचपन की सुनहरी यादें ताजा हो गई ...बहुत सुंंदर सृऋसृजन ।
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