Monday, August 28, 2017

चुप की छाया


चुप की छाया ने
निगल लिया उस वक़्त को
जो एक खूबसूरत
लम्हा बन सकता था।
समय भी
हरसिंगार सा
झड़ता है धरती पर
और धूल में लिपट जाता है।
रात हसीन लगती है
जब
आँखों में कोई ख्वाब हो
और नींद से दुश्मनी हो जाए
कुछ आँखो को
सपने गिराने की आदत होती है
खो जाने के बाद सब स्वीकारना
अकेलपन से किया समझौता है।

4 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (29-08-2017) को कई सरकार खूंटी पर, रखी थी टांग डेरे में-: चर्चामंच 2711 पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा said...

समय भी
हरसिंगार सा
झड़ता है धरती पर
और धूल में लिपट जाता है।

बहुत ही सुंदर संकल्पना। बधाई रश्मि जी।

दिगम्बर नासवा said...

बहुत खूब ... पढने में एक आनद जो बयां नहीं हो पा रहा ...

'एकलव्य' said...

वाह! बहुत सुन्दर आभार ''एकलव्य"