Wednesday, June 26, 2024

हो रहा है ज़िक्र पैहम आम का


आम...नहीं - नहीं, आम से पहले मुझे आम का बगीचा याद आता है, पत्तों से छनकर आने वाली धूप याद आती है और पीठ पर उगी घमौरियों की काल्पनिक खुजलाहट भी महसूस होने लगती है।

यह तो होना ही था...तब भरी दोपहरी आम के बगीचे में मुहल्ले के बच्चों का जमावड़ा लगता और होती थी छीना - झपटी। जब आम के टिकोरे थोड़े से बड़े होते तो कोई अपनी जेब में छुपाकर नमक लाता, कोई मिर्ची और जो ज्यादा तेज बच्चा होता वह अपने घरवालों की आंख बचा रसोई से चाकू भी ले आता। सब मिलकर उसे छीलते, छोटे - छोटे टुकड़े करते और फिर बनता नायाब कच्चे आम का घुमउआ...अहा...मुंह में पानी लाने वाला अतुलनीय स्वाद।

ढप की वह आवाज रसीली


गर्मियों की छुट्टियां आधी बीतती तब तक आम बड़े होने लगते। कुछ दिनों पहले तक आम खाने का साझा बंदोबस्त वाला तरीका बंद हो जाता, क्योंकि पके आम मिलने पर भला कौन बंटवारा करे !  पत्थर मारकर आम भी नहीं तोड़ा जा सकता क्योंकि बागीचे की पहरेदारी अब तक शुरू हो जाती थी। इसलिए हमें पेड़ से पके - टपके फल का इंतजार होता। जैसे ही ढप की आवाज होती, झाड़ - झंखाड़ भूलकर सब बच्चे उस ओर ही दौड़ लगाते। जिसके हाथ लगता आम...वह दूसरों को दिखा - दिखा कर ललचाता।

पहले ज्यादातर बीजू आम के पेड़ होते थे घरों के बाहर। उन दिनों एसी कूलर का जमाना नहीं था, सो गर्मियों में हमलोग छतों पर तारे गिनते या हवा चलने पर कितने पके आम गिरे, इसकी गिनती करते हुए सो जाते। सुबह जल्दी उठकर सब आम चुन कर एक बाल्टी पानी में डुबाकर छोड़ देते। फिर तो आम ही नाश्ता, आम ही खाना...

वरना लंगड़ों पे कौन मरता


गर्मियों और आम ऐसा नाता है कि एक के आते ही दूसरे को पाने की बेताबी बढ़ जाती है। तब हमारे लिए आम की दो ही किस्में होती थी - काटकर खाने वाला, चूस कर खाने वाला आम।

यह तो बाद में पता लगा कि अल्फांसो, दशहरी, जर्दालू, बैंगनपरी, तोतापरी, कलमी, हापुस, चौसा, मालदा, लंगड़ा...न जाने कितने आम होते हैं। मुझे लंगड़ा नाम के साथ ही किसी का कहा एक शेर याद आता है -

"तजरुबा है हमें मुहब्बत का दिल हसीनों से प्यार करता है
आम ये तेरी खुशनसीबी है वरना लंगड़ों पे कौन मरता है"


इतिहास में आम


प्राचीन भारतीय ग्रंथों में आम को कल्पवृक्ष भी कहा गया है। वैदिक कालीन ग्रंथों तथा अमरकोश में भी इसकी चर्चा है और यह बुद्ध के समय भी प्रतिष्ठा पा चुका था। आम की प्रशंसा कालिदास ने भी की और सिकंदर ने भी।हेमिल्टन जो अठारहवीं सदी में भारत आया था, उसने गोवा के आमों को संसार का सर्वश्रेष्ठ आम बताया है ।  कोंकणी आम की यह प्रतिष्ठा आज भी कायम है।
ह्वेनसांग ने अपने यात्रा वर्णन में भी आम का उल्लेख किया है।

कहते हैं मुगल सम्राट अकबर ने दरभंगा में विभिन्न प्रजातियों के आम के पेड़ लगवाए थे। शाहजहां भी आम का शौकीन था। और हां - चौसा में हुमायूं पर जब शेरशाह ने विजय प्राप्त किया तो अपने पसंदीदा आम का नाम चौसा रख दिया।


अमझोरा का सोंधा स्वाद


उन दिनों आम की गुठली कड़ी होने से पहले ही आम घर आ जाता था अमझोरा बनाने के लिए। क्या स्वाद होता था उसका। पहले उसे आग या गरम राख में पकाओ, छील कर गूदा अलग करो और उसमें काला नमक, चीनी, भुना जीरा, पुदीना और पानी डालकर तैयार करो। कहीं से बर्फ मिल जाए तो स्वाद जैसे दुगुना हो जाता था। लोग तो मिट्टी के घड़े में डालकर ठंडा होने रखते थे और खूब पीते, मस्त काम करते। गांवों में गर्मी के असर को काटने का कोई दूसरा उपाय इससे बेहतर नहीं होता था।


वैसे अचार का सिलसिला तो बचपन से ही चला आ रहा। मां गर्मियों में आम के चार टुकड़े करने के लिए 'बैंठी' जिसे हंसुल कहते हैं, उसका उपयोग करती थीं। जिस आम के अंदर की गुठली कच्ची निकलती, वह हमारे खेल का साधन बनती। हम उसे अंगूठे और इंडेक्स उंगली के बीच रखकर दबाते। सामने जो भी लड़का या लड़की होता, उसकी ओर देखकर चिकनी गुठली से पूछते - " कोया - कोया...बता इसकी शादी किधर होगी ? " गुठली जिस दिशा में जाकर गिरती, हम सामने वाले पक्का विश्वास दिला देते कि मानो न मानो तुम्हारी ससुराल उसी दिशा में होगी।

तब न टीवी सबके घर होती थी न और खेलने का कोई अलग तरीका। तो बच्चे मन बहलाव के लिए कंचे - कबड्डी के अलावा भी कुछ खेल बना लेते थे।

अचार की फांक


आम के मीठे और नमकीन दोनों तरह के अचार बनते घर में। मां साबुत मसाले मंगवाती और एक - एक कर सब मसाले पहले भूनती और सबको सिल - लोढ़ा में पीसती। पूरा घर भुने मसालों की सोंधी सुगंध से भर जाता।

मां अचार लगा धूप में रख देती और हमलोग छत पर चुपके से जाकर अचार की फांक निकाल कर भागते। चार - पांच दिन धूप दिखाने के बाद खाने के लिए कुछ अचार बाहर रखकर बाकी को कांच के मर्तबान में साल भर सुरक्षित रखने के लिए ढक्कन के नीचे एक कपड़ा डालकर कस कर बंद किया जाता था। इन अचारों को हम साल भर खाते। मुझे याद है तब बड़े शहरों से आने वाले मेहमान मां के हाथों बने अचार की तारीफ कर अपने घर ले जाने के लिए भी मांग लेते।

जाने कहां गए वो दिन


कई बार आम अधिक आ जाता तो मां छोटे कच्चे आमों को छील - सुखाकर उसकी खटाई बनाती और पके आम के अमावट, जैम बनते। यानी आम के आम, गुठली के दाम। सब कुछ घर का बना। न कोई प्रिजर्वेटिव का उपयोग न बाजार का चक्कर। होम मेड चीजें जो स्वाद में तो अच्छी होती थी, स्वास्थ्य की दृष्टिकोण से भी फायदेमंद। अब सोचती हूं तो लगता है, यह किसी और युग की बातें याद कर रही हूं। बच्चों के पास अब इतनी फुर्सत कहां कि आम में मंजर आने से उनके पकने तक कि प्रक्रिया को जाने समझे।

हमलोग तो आम के मंजरी आने से ही पेड़ पर नजर गड़ाए रहते थे। इसके दो कारण थे - पहला कि उस समय सरस्वती पूजा के दिन मिश्री और आम के मंजर प्रसाद के रूप में चढ़ाकर, फिर पहली बार खाते थे। दूसरा - कोयल की मीठी बोली उसी समय से सुनाई पड़ने लगती थी।

अब कार्बाइड डाल कर पकाए फल और पेड़ में पके फल के स्वाद का अंतर हम समझते हैं, क्योंकि हमने दोनों को चखा है। मगर अब के बच्चे भला कैसे पहचानेंगे यह स्वाद ?  अब बाजार जाइए, जो उपलब्ध है, खरीद लाइए। बल्कि अब तो लगभग हर मौसम में आम मिलने लगा है, जिसमें कोई स्वाद होता ही नहीं।

गलती आज के बच्चों की भी नहीं है। ये कंक्रीट के जंगल में रहते हैं और इनकी दुनिया मोबाईल, लैपटॉप में सिमट के रह गई है। घर के आसपास न कोई फलदार पेड़ नजर आता है और न ही फल पकने पर पड़ोसी के घर पहुंचाने वाली सामाजिकता बची है। लोग इतने सिमट गए हैं कि अब पड़ोसी भी पड़ोसी को नहीं पहचानता।

एक समय था जब घर में आम का पेड़ होना, समृद्धि का परिचायक हुआ करता था। पहले जिनके आम के बागान या चार - छः पेड़ होते थे वो आम पकने पर पूरे मुहल्ले को बांटने के बाद नाते - रिश्तेदार और मित्रों के घर भी भिजवाया करते थे। शादियों में भी टोकरी भर - भर कर आम भिजवाने का रिवाज़ था। तभी न अकबर इलाहाबादी ने तो एक पूरी ग़ज़ल ही बतौर ए ख़ास 'आम' पर लिख डाली है 'आम-नामा' के नाम से। दरअसल यह दरख्वास्त थी अपने दोस्त मुंशी निसार हुसैन से -

नामा न कोई यार का पैग़ाम भेजिए
इस फ़स्ल में जो भेजिए बस आम भेजिए

ऐसा ज़रूर हो कि उन्हें रख के खा सकूँ
पुख़्ता अगरचे बीस तो दस ख़ाम भेजिए

मालूम ही है आप को बंदे का ऐडरेस
सीधे इलाहाबाद मिरे नाम भेजिए

ऐसा न हो कि आप ये लिक्खें जवाब में
तामील होगी पहले मगर दाम भेजिए !


माना जाता है कि यह सबसे पहले आसाम में जंगली प्रजाति के रूप में उगा और चौथी से पांचवी सदी ईसा पूर्व ही एशिया के दक्षिण पूर्व तक पहुंच गया। भारत कभी भी आम का आयात नहीं करता और यहां पन्द्रह सौ से अधिक किस्म के आम उगाए जाते हैं। वाकई, आम आम नहीं खास है, क्योंकि यह फलों का राजा है। मंजर से लेकर पत्तों तक, कच्चीअंबिया से लेकर पके आम तक , हमारे जीवन में रचा - बसा है, समझिए कि एक पूरी संस्कृति है आम।


2 comments:

Abhilasha said...

बहुत ही रोचक ,सुंदर सार्थक रचना आम ने आनंद से भर दिया।

आलोक सिन्हा said...

सुंदर लेख