मां अक्सर बताया करती थीं
युवा दिनों में
जब जाती थीं पिता के साथ बाजार
लंबे डग भरते हुए
हमेशा पिता चार हाथ आगे निकल जाते थे
साथ चलने के लिए
छोटे कद की मां को लगभग दौड़ना पड़ता था
बड़ी हुई बेटियां तो मां ने
पिता के साथ बाहर जाना छोड़ दिया
गर्व से भरी मां दोनों बेटियों के हाथ थाम
बाजार जातीं, सिनेमा देखतीं,
सहेलियों सी खिलखिलातीं
पिता से कहतीं
जाइए अब अकेले और तेज कदमों से
नापिए दुनिया
और एक दिन पिता सचमुच
लंबे डग भरते हुए बहुत दूर निकल गए
मां अकेली छूट गईं
बेटियां कहां रह पाती हैं मां के पास हमेशा
तुलसी मुरझा जायेगी,
भूरी बिल्ली कहीं भूखे न रह जाए
छत पर उतरने वाले कबूतर उन्हें न पा उदास हो जाएंगे...
मां से भी तो अपना घर नहीं छूटता
अब भी उन दिनों को याद करती हैं मां
पिता के साथ स्कूटर पर बैठ
पूरा शहर घूमती थीं
अब थरथराते हैं पांव
सड़क पर चलते, रिक्शा चढ़ते
डबडबाई आंखों से इतना ही कहती हैं
तेरे पिता को आगे चलने की आदत थी न
तब भी तो मुड़कर नहीं देखते थे
कि पीछे कहां रह गई हूं मैं....
2 comments:
वैसे पिताजी कितने भी आगे चले हों उनकी रूह माँ में ही होती है :)
सुन्दर |
मन में कहीं गहरी उतर गई ये कमाल की रचना ...
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