जैसे खेलते हैं कुछेक गाँव में
छुप्पम-छुपाई का खेल
अब भी कुछ बच्चे, वैसे ही
कभी खेलते थे आदिवासी बच्चे
अत्ती-पत्ती कौन पत्ती
अलग-अलग पेड़ की
पत्तियों के रंग और गंध
सूँघते थे,छूते थे
पेड़, पत्ती और झाड़ों को
पहचानते थे आदिवासी बच्चे
खेल ही खेल में
सीखते थे लाल माटी
और बलुआही मिट्टी का अंतर
काली मिट्टी की चिकनाहट से
देह रगड़ते
और दूधी माटी खोदकर
पोतते थे कच्ची के घर की दीवारें
घुल-मिल जाते थे ऐसे
छुटपन से प्रकृति में
कि बेंग साग और चोकड़ साग को
छूकर और आँख बंद कर
पाकड़ के पत्तों को सूंघकर
बता देते थे कि
पाकड़ है या है बड़, पीपल
खेलते थे आदिवासी बच्चे
हवा,धूप,पानी से
बग़ैर किसी चिंता के
होते थे एकमेक
नदी,जंगल, ज़मीन और
गाँव में कादो- माटी से
अब भी नहीं जानते दिकू
हाट-मेले में चुन लिया जाता था
छोटानागपुर का राजा
जिसे होती थी
जल,जंगल और ज़मीन के
चप्पे-चप्पे की ख़बर
चींटियों की चाल से
लोटे के पानी से
जो जान लिया करते थे
मौसम का हाल
पहानों के भविष्यवाणी ऐसी
कि नहीं पड़ता था कभी सूखा
नहीं मरता था कोई भूखा
क्योंकि
आदिवासियों के बच्चे
खेला करते थे अत्ती-पत्ती कौन पत्ती
जानते थे बच्चे
हर पेड़, हर फूल, हर पत्ते का नाम
जीवन इसलिए सरल था
कि गेंदा के पत्तों से भी
कर लेते थे कटे-फटे का इलाज
पर अब ये बच्चे भी
होने लगे हैं शहरी
छूटने लगा है प्रकृति का साथ
भूल रहे सब पुरानी बात
पुराने संस्कार और हाट-बाज़ार
अब भूल रहे हैं खेलना भी
अत्ती-पत्ती कौन पत्ती।
5 comments:
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन हर एक पल में ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
कटु सत्य ! वैसे भी बच्चों का बचपन तो जैसे ख़त्म ही हो गया है या कर दिया गया है !
सत्य है
धन्यवाद
लाजवाब
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