धागा,
जो प्रेम का होता है
धागा,
जो मोतियाँ पिरोता है
धागा,
जो फूलों की माला गूँथता है
वही धागा
माटी को माटी से जुदा करता है
अलग रूप, अलग रंग,
अलग आकार देता है
धागा,
जोड़ता ही नहीं, तोड़ता भी है
जैसे प्रेम में
सँवरते नहीं,कुछ बिखर भी जाते हैं
माटी का तन
माटी में मिलना है एक दिन
सब जानते हैं
किसी का
सोने सा मन माटी हो जाता है
धागा,
प्रेम का हो या कुम्हार का
जोड़ता ही नहीं तोड़ता भी है ।
7 comments:
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन लोकनायक जयप्रकाश नारायण और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शुक्रवार 13 अक्टूबर 2017 को लिंक की गई है.................. http://halchalwith5links.blogspot.com पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
बहुत सुंदर रचना
जीवन दर्शन को अभिव्यक्त करती सुंदर प्रस्तुति।
बहुत सुंदर wahh
एक अलग नज़रिया
धागे का अलग रूप भी दिखा दिया आपने ... बहुत खूब ...
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