Friday, August 4, 2017

शरीफा और चारआना


हम 'बड़ा' बोलते थे उन्‍हें। हम, यानी मैं और मेरी बचपन की सहेली मनु, साथ ही 'बड़ा' के घर वाले और मुहल्‍ले के सारे लोग। 'बड़ा' का अर्थ है बड़ी मां। वो एक उम्रदार कर्कशा ब्राह्ण औरत थीं। वि‍धवा थींं और  कोई संतान भी नहीं थी उन्‍हें।

पता नहीं, यही वजह थी या कोई और कि‍ जमाने के प्रति‍ जि‍तनी कटुता उनके अंदर थी वो सब चेहरे से उनके झलकती थी और वो इसे छि‍पाने की भी कतई कोशि‍श नहीं करतीं। रूखा झुर्रीदार देहरा, रूखे केश मगर मजबूत काठी की महि‍ला थीं 'बड़ा'। सारा परि‍वार हंसता-खेलता और वो बगल में एक छोटी सी कुटि‍या में अपनी दुनि‍या समेट कर रखती। कमरे के अंदर पुआल का बि‍छौना, उसके ऊपर एक मोटा सा लेदरा, जो शायद उन्‍होंने फटे-पुराने कपड़ों से खुद ही सी लि‍या था, हमेशा बि‍छा रहता। दि‍न में अक्‍सर अंधेरा पसरा रहता कमरे में। कोई खि‍ड़की नहीं थी उस छोटे से कमरे में। हां, रात में प्रकाश होता ढि‍बरी का जो अंधेरे कमरे में उजाला करता।

उनके खाने के बर्तन भी अलग थे। एक स्‍टील की थाली और दो गि‍लास। मगर बरतन हमेशा चमचमाते मि‍लते। रोज चूल्‍हे की राख से मांजा करती थी अपने बर्तन। एक गि‍लास से पानी पीतीं और दूसरी से चाह..यानी चाय। शौकीन थी चाय की। हमेशा लाल चाय पीती। बि‍ना दूध वाली। खूब सारा चीनी डाल...सुड़क-सुड़क कर। एक यही आदत थी उनकी इसलि‍ए कमरे के बाहर मि‍ट्टी का चूल्‍हा था, जि‍स पर चाय खौलाती बड़ा। लकड़ी खरीदना नहीं पड़ता था उन्‍हें। खेत-खलि‍हान और जंगल से सूखी लकड़ि‍यां और झूूूूरी चुन के लाती और सुबह-शाम चूल्‍हा सुलगा लेती। खाना वह खुद नहीं बनाती थी। घरवाले उनका खाना उनकी ही कोठरी में दे जाते। पर हमेशा देखा कि‍ वो अकेले ही खातींं खाना, बड़े-बड़े कौर लेकर नि‍गलती हुई सी।

उनके पति‍ की मौत कब हुई, यह तो नहीं पता क्‍योंकि‍ मैंने होश संभालते ही उन्‍हें इसी तरह देखा। बड़ा बकरि‍यां पालती थीं। रोज सुबह बकरि‍यों को लेकर नदी की तरफ़ नि‍कल जातीं। एक छोटी सी मगर मजबूत झूरी (छड़ी) उनके हाथ में हमेशा मौजूद रहती। सुबह एक बार जंगल से लौट आने के बाद गांव में बकरि‍यां छोड़ देती और  घर से लगे गोबर से लि‍पे पि‍ेंडे पर बाहर बैठी रहतीं। जाने ये उनका शौक था या जरूरत। दि‍न भर बकरि‍यों को 'हुर्र-हुर्र....हि‍ने आ....हुने जा' की आवाज लगाती रहती। कभी-कभी तेज आवाज में बड़बड़ाती भी। पता नहीं लगता कि‍ वो बकरि‍यों से बात कर रही है या कि‍सी इंसान को कोस रही है क्‍योंकि‍ जो वो कहतींं वो स्‍पष्‍ट नहीं  होता मगर स्‍वर में झि‍ड़की होती थी। 

फि‍र सभी छेगरि‍यों, हां वो छेगरी ही कहती थीं बकरि‍यों को, दोपहर में आंगन में खूंट देती और 'बड़ा' दोपहर भर पि‍ंडा पर बैठकर हर आने-जाने को घूरा करतीं। कि‍सी से बात करना नहीं पसंद था उन्‍हें। बड़ा और उनकी बकरि‍यां, यही था उनका जीवन। आंगन में बंधी बकरि‍यां रात को उसी कोठरी में सोती थी जहां बड़ा रहती थीं। शायद वो अपना अकेलापन इनसे बांटती थी। मुझे बहुत आश्‍चर्य होता, कि‍ कैसे कोई बकरि‍यों के साथ एक ही कमरे में सो सकता है। दि‍न भर में-में की आवाज और रात में भी। 

एकदम सुबह उठकर बड़ा कुएं पर चली जाती नहाने। रस्‍सी-बाल्‍टी से पानी खींचकर एक बड़े से बाल्‍टी में भर लेती और वहीं 15-20 ईंटो को जोड़कर बनाई जगह पर बैठ, साबुन से अपना लुगा साफ़ करती। उनका लुगा बहुत सफेद होता.... सफे़द साड़ी। बड़ा ने कभी ब्‍लाउज नहीं पहना। हमेशा एकवस्‍त्रधारी रहीं। बस एक धोती जो टखनों के ऊपर होती, वो कमर को घेरते हुए सामने सीने को ढकती और बांयी बांह के ऊपर से नि‍कलकर पीठ से होती हुई दाहि‍नी कमर में खुंसी रहती। मगर उनके वस्‍त्र कभी अस्‍त-व्‍यस्‍त नहीं होते। जैसे साध लि‍या हो उन्‍होंने अपने मन की तरह कपड़ों को भी।

बहुत कम कपड़े थे उनके पास। जो भी थे रंगहीन। वि‍धवाओं के वस्‍त्र ऐसे ही हुआ करते हैं अब भी गांवों में। पति‍ की मृत्‍यु के साथ ही सारे रंग उनके जीवन से चले जाते हैं। यह कहना सही होगा कि‍ जीवन ही चला जाता है, बस सांसें रह जातीं है। वह कपड़े पहने-पहने नहाती। कुएं के लट्ठ-कुंड से ठंढ़ा पानी खींच कर नि‍कालती और बाल्‍टी से वहीं खुद पर उड़ेलती जाती। उन्‍हें देखकर मेरा भी मन होता कि‍ ऐसे ही नहाऊं। पर मां ने नहाने नहीं दि‍या कभी वैसे।

'बड़ा' नहाकर कपड़े पसारती और एक छोटी कंघी से अपने बाल बनातीं। बाल खुले होते  अक्‍सर उनके और कभी-कभी जूड़े की तरह पीछे बांध लेतीं। वो कि‍सी से बात नहीं करतीं। कोई कुछ पूछता तो हां-हूं में जवाब और जो कोई दुबारा बात छेड़ता तो 'हम नई जानबऊ' (मुझे नहीं मालूम) बोलकर, कड़वा सा मुंह बनाते हुए आगे नि‍कल जाती। उनके रूखे केश और रूखा मुंह देखकर फि‍र सामने वाले की हि‍म्‍मत नहीं होती कि‍ वो कुछ कहे। हमारी तो क्‍या बात, उनसे गांव का कोई बात ही नहीं करता। घरवालों को भी मैंने कभी बात करते नहीं पाया उनसे।  

जि‍स कुएं में 'बड़ा' नहाती थीं, उसके ठीक नीचे जमीन में कुछ क्‍यारि‍यां बनी हुई थी, जहांं टमाटर और मौसमी सब्‍जि‍‍‍‍‍यां उगाईं जाती थीं। कुएं के दूसरी तरफ बहुत सारे पुदीने उगते। हरे-हरे, सुगंधि‍त। पास ही उढ़हुल का फूल का पौधा भी था जि‍समें लाल-लाल फूल खि‍लते थे। कभी-कभी मां कहती- 'जाआे कुछ पत्‍ते तोड़ लाओ। आज इमली के साथ पुदीने की चटनी पीसनी है या पुदीने की शरबत बनानी है।'  मुझे पुदीने का शरबत बहुत पसंद था। मैं भागकर जाती, पर इसका ध्‍यान रखती कि‍ कहीं आसपास 'बड़ा' न हो। मुझे उनकी झि‍ड़की से बड़ा डर लगता। वो हम बच्‍चों को देखते ही अपनी बड़ी-बड़ी गोल आंखे नि‍कालकर घूरती.....'का है ?.का लेवे आय हीं' .मैं तो उन्‍हें देखते ही भाग आती। बहुत ककर्श बोलती थीं  'बड़ा'। मैं आकर मां को कहती- गंदी है बड़ा। मुझे क्‍यों भेजती हैं आप पुदीना तोड़ने। आप खुद जाकर ले आया कीजि‍ए। मां हंसकर कहतीं- 'तुम्‍हें  'बड़ा' खा तो नहीं जाएंगी। वो ऐसी ही हैं। बुरा नहीं मानते उनकी बातों का।'  

मगर हमारे साथ बड़ी मुश्‍कि‍ल थी। हमारी बेहद पसंदीदा चीज उनके कब्‍जे में थी। हम कि‍तना भी कोशि‍श कर लें, उनकी आंखों के नीचे से नि‍काल लाना नामुमकि‍न था। दरअसल मुझे और मनु को शरीफा यानी सीताफल बेहद पसंद थे और बड़ा के बगान में इसके पांच पेड़ थे जो मौसम आने पर फलों से लद जाते और हमें ललचाते। हम इस फि‍राक में रहते कि‍ कैसे पेड़ से फल तोड़े जाए। हम दोनों कक्षा तीन में थे। स्‍कूल से आने बाद कोई काम नहीं। खेलते रहते इधर-उधर। पढ़ाई करने के लि‍ए शाम का समय तय था। मनु और मैं शरीफा के पेड़ में फूल से फल आने और उसके बड़े होने फि‍र उनका रंग हरा से हल्‍का सफेद होने का इंतजार करते। इसके पहले फल तोड़कर भी कोई फायदा नहीं था क्‍योेंकि‍ कच्‍चे फल में कोई स्‍वाद नहीं आता। हम ललचाई आंखों से शरीफा के पकने का इंतजार करते। हालांकि‍ घर में सभी तरह के फल आते थे, मगर पेड़ पर पके शरीफा का स्‍वाद अतुलनीय होता है। हम टकटकी लगाए  'बड़ा' के बगान के शरीफों के पकने का इंतजार करते।

ऐसा नहीं कि‍ हमें आम पसंद नहीं। गर्मिंयों की दोपहर, जब घर में मां और दादी-चाची सो जातीं, हम बच्‍चे चुपके से घर का दरवाजा खोल कर दोपहर आम के पेड़ के नीचे ही गुजरतेे कि‍ कब आम टपके और झपटकर कौन ले सबसे पहले और खाएं। आम के पेड़ गांव में बहुत थे, कहि‍ए कि‍ दो तीन पूरा आम बगीचा ही था , इसलि‍ए इतना आकर्षण नहीं था आम के लि‍ए जि‍तना शरीफा के लि‍ए था।

हमारा ललचाना 'बड़ा' की आंखों से छि‍पा नहीं था। हमें घर और बारी के आसपास मंडराते देखकर वो फलों की पहरेदारी करने लगी थी। हमें सुनाकर कहती....'हम गि‍न के रखि‍यैयला सब शरीफा..जे कोई तोड़तई, उके तो डंटा से मारबई।' (हमने गि‍न रखा है फल। जो कोई तोड़ेगा उसे डंडा से पीटेंगे। ) तनी तोइड़ के तो देखे कोई, हथवा नै मुचईड़ देबै तो कहबे। ( कोई तोड़ ले तो उसका हाथ मरोड़ देंगे।)  हमलोग इस धमकी से सहम जाते और चुपचाप नि‍कल जाते। अब अगले दि‍न बि‍ल्‍कुल पास नहीं फटकते, ताकि‍ उन्‍हें लगे कि‍ हम वाकई डर गए हैं। मगर दूसरे दि‍न ढलते न ढलते मौका लगाकर हम पहुंच जाते पेड़ के पास, यह देखने के अबकी कौन सा वाला शरीफा पकेगा।

 'बड़ा' के घर में और लोग भी थे। उनके देवर देवरानी और उनके बच्‍चे। राहत की बात थी कि‍ उन्‍हें हमारी पसंद मालूम थी और वो लोग जब भी फल तोड़ते तो हमें दो-चार फल खाने के लि‍ए दे देते थे। एक  'बड़ा' ही थी जि‍सेे हमसे न जाने कैसी दुश्‍मनी थी।  वो लोग कच्‍चे फल गदराने पर तोड़ लेते और पुआल के ढेर पर पकने रख देते। पर हमें तो चाहि‍ए था पेड़ का पका फल, जो 'बड़ा' के कब्‍जे में था। वो बि‍ल्‍कुल नहीं देना चाहती थी हमें।

मगर एक दि‍न बड़ी अनोखी बात हुई। मैं और मनु दोपहर में अपने घर के बाहर खेल रहे थे। गलि‍यों की धूल में झूरी से चौखाने बनाकर बि‍त्‍ती खेलना और बरामदे में बैठकर इमली के चि‍यां से गोटी खेलना सबसे प्रि‍य काम था।  यहां से 'बड़ा' का घर दि‍खता है। हमने गौर कि‍या कि‍ वो अपने कोठरी के दरवाजे पर खड़ी होकर बहुत देर से हमारी तरफ देख रही थी। कभी अंदर जातींं कभी बाहर आतीं, मगर उनकी नि‍गाहें हम पर ही लगी थी। हमने और मनु ने आंखों से इशारा कर एक-दूसरे को बताई यह बात और उधर से बेध्‍यानी का दि‍खाना करते हुए बि‍त्‍ती खेलते रहें।

कुछ देर बाद 'बड़ा' उसी पि‍ंडे पर आकर बैठ गर्इं, जहां से वह अपनी बकरि‍यों पर हुकूमत चलाया करती थीं। कुछ देर तो वह बैठी हीं रहीं, देखती रही हमारा खेल। हमार नजर जब एक बार टकराई तो उन्‍होंने आंखों से इशारा कर हमें अपने पास बुलाया। क्‍यों बुला रही हैं हमलोगोंंको, पहले तो हम सहमे, मगर हमने कोई गलती की नहीं थी, न ही उनके बगान से शरीफा चुराया था, कि‍ डरते। तो मैं और मनु दोनों उनके पास गए।

पूछा- का कहथीं 'बड़ा' ?
'बड़ा' बोलीं- 'शरीफा खाबे का ? दू-तीन गो पाकल हौ। गाछ से बि‍हाने ही तोइड़ रही।' 
(शरीफा खाओगी क्‍या? दो -तीन पके हुए हैं। सुबह ही पेड़ से तोड़ा है। )
वाह.. हमारे तो मन की मुराद पूरी हो गई। कब से ललचाए और टकटकी लगाए बैठे थे । दोनों ने एक स्‍वर में जवाब दि‍या- हां, दे न ।
वो फि‍र बोलीं- 'मगर इकर पैइसा लगतऊ। ऐसे कैसे दे देबऊ खाय ले'
(मगर इसके पैसे देने पड़ेंगे, ऐसे कैसे दूंगी खाने) 
अब मैं और मनु एक दूसरे का मुंह देखने लगे। मन ही मन कहा- तो यह बात है। हमें पहले ही समझ लेना था कि‍ बड़ा इतनी अच्‍छी कैसे हो सकती है कि‍ हमें फल खाने के लि‍ए दे। तब हम छोटे से थे...लगभग 8-9 वर्ष की उम्र रही होगी। पॉकेटमनी का तो सवाल ही नहीं उठता। फि‍र भी चांस लेने के लि‍ए हमने पूछा- 'केतना पैसा लेबे बड़ा?' (कि‍तना पैसा लोगी बड़ा)
वो बोलीं- एक शरीफा के चवन्‍नी, इकर से कम नई। लेवेक हो तो ले...नई तो जा, हम इके बाजार में बेच देबई।
(एक फल के 25 पैसे। इससे कम नहीं। लेना है तो लो वरना बाजार में बेच देंगें) 

अब हम अकबकाए। जि‍स शरीफे को आंख के आगे बड़ा  होते देखा उसे अपने सामने से नि‍कल कर कैसे जाने दे। हम दोनों सखि‍योें में आंखों ही आंखों में बात हुई और दोनोें अपने घर की तरफ दौड़े - सरपट।  मैं तो जाकर मां के गले से झूल गई..

''मां...ओ मां...एक चवन्‍नी दो न''।
मां ने पूछा- ''क्‍या करेगी पैसे का''...जवाब में नखरा दि‍खाया। ''क्‍या मां...चारआना भी नहीं दे सकतीं तुम। कुछ लेना है न ''।
मां ने फि‍र कहा- ''क्‍या लेना है सो तो बोल, देती हूं अभी''।
अब तो बताना ही पड़ा....''मां...'बड़ा'  शरीफे के बदले पैसे मांग रही है। दे दो न। बहुत खाने का मन हो रहा है''।

मुझे लग रहा था कि‍ वो 'बड़ा'  के लि‍ए कुछ जरूर कहेंगी कि‍ कैसी महि‍ला है, बच्‍चे से पैसे मांगती है। क्‍या पता, बाहर जाकर 'बड़ा'  को कह दे कि‍ हमसे पैसे लि‍या करो, बच्‍चों से क्‍यों मांगती हो। क्‍योंकि‍ मां हमें पैसे नहीं देती थीं। जो भी सामान चाहि‍ए, वह हमें मंगाकर ही देती थीं। पर पता नहीं क्‍या सोचकर मां ने कुछ नहीं कहा और चुपचाप से एक चवन्‍नी मेरी हथेली में धर दि‍ए। मैं बाहर आकर मनु की राह देखने लगी। थोड़ी देर में कूदती-फांदती वो भी दि‍खलाई पड़ी मुझे। चेहरे से हंसी से लग रहा था कि‍ पैसे मि‍ल गए हैं उसे भी।

अब हम गये बड़ा के दुआरे पर। आज पहली बार उनके मुंह में हंसी देखी मैंने और स्‍वर भी मीठा सा लगा। कहा- ''का मईंया, ले लान्‍लही पइसा'' ..हमने अपनी मुट्ठि‍यां खोल दी उनके सामने। उनका चेहरा जरा सा खि‍ल गया। उन्‍होंने अपनी अंधेरी कोठरी के पुआल के ढेर के नीचे से दो बड़े आकार के शरीफे नि‍काले आैर हमारे हाथ में धरा।
कहा- 'अबकी से शरीफा पाकतऊ नै, हम बोइल देबयौ तोहि‍न के। राइख देबऔ पर अइसने नई देबऊ। एगो शरीफा कर चार आना। जेतना शरीफा कि‍नबे, सब कर पैसा देवेे पड़तऊ'।
हमने अपना सर हां में हि‍लाया और बाहर नि‍कलने लगे। उसी समय बड़ा ने पीछे से आवाज देकर कहा...'सुन मईंया मन..शरीफा अपन झूला में छुपाय के ले जा और केकरो नई बताबे कि‍ हम दे हि‍यउ। समझलीं। 
(बच्‍चि‍यों फल को फ्रॉक में छुपाकर ले जाओ और कि‍सी को बताना नहीं कि‍ मैंने दि‍या है। समझ गई न ) 

हमने सहमति‍ जताते हुए एक दूसरे को देखा। हम दोनों की आंखों में प्रश्‍न कौंध रहा था कि‍ क्‍यों नहीं बताएं कि‍सी को। हमने पैसे देकर खरीदे हैं। ना तो 'बड़ा' ने मुफ्त में खाने के लि‍ए दि‍या है न ही हमने चुराए हैं। मगर हमें जवाब नहीं मि‍ला और सच तो ये है कि‍ हमने जानने की कोशि‍श भी नहीं की कि‍ इसका कारण क्‍या है। न उनसे पूछा न घर में कि‍सी और से। हां, यह जरूर हुआ कि‍ हम बराबर चवन्‍नी देकर शरीफे खाते रहे बरसों तक। बड़ा अब थोड़ी प्‍यार भरी मुस्‍कान के साथ मि‍लने लगी हमसे। हम उनके इशारे का इंतजार करते, कि‍ कब वो अपने पास बुलाए। वो भी इंतजार में रहती कि‍ कब शरीफा का मौसम आए और हम उनसे शरीफा खरीदें। हमलोगों को शरीफा खाने से मतलब था और 'बड़ा'  को उनसे मि‍लने वाले पैसों से। कभी-कभी तो एक साथ चार-पांच पके शरीफे भी हम खरीद लाते। इसमें मां का पूरा सहयोग था। उन्‍होंने कभी मना नहीं कि‍या कि‍ नहीं दूंंगी पैसे न ही कभी 'बड़ा'  को इसके लि‍ए टोका। यह सि‍लसि‍ला तब तक चला जब तक बड़ा जि‍ंदा रहीं।  

हमें 'बड़ा'  की मन:स्‍थि‍ति‍ का पता तब लगा जब सबकुछ समझने की उम्र हुई। मगर अफसोस तक तक 'बड़ा'  हमें छोड़कर जा चुकी थीं। ऐसी ग्रामीण महि‍ला जो कम उम्र में वि‍धवा हो गई, जि‍नकी अपनी कोई संतान नहीं आैर घर से उपेक्षि‍त एक कोने में पड़ी दो वक्‍त की रोटी नि‍गल कर अपने मरने का इंतजार कर रही हो उसके लि‍ए एक आसरा था चारआना का,  कि‍ छुपाकर बेचे गए शरीफे से मि‍लने वाले कुछ पैसे ही सही, उनके अपने होंगे। चाय की लत उनको थी, उसी की पूर्ति के लि‍ए उन्‍हें थोड़े से पैसों की जरूरत होती होगी जो शरीफा बेचकर पूरी हो जाती थी। अपने घरवालों के सामने हाथ न फैलाना पड़े, चायपत्‍ती और चीनी अपने पैसों से खरीद सके,  इसलि‍ए उन्‍होंने फलों को बेचना शुरू कि‍या होगा। 

 मैनें देखा तो नहीं पर लगता है उस अंधेरी कोठरी में एक गुल्‍लक छुपा रखा होगा 'बड़ा'  ने, जो पूरा न सही आधा तो भर ही जाता होगा, मेरे और मनु के खरीदे शरीफे के बदले दि‍ए पैसों से।  मुझे उस दि‍न 'बड़ा'  की आंखों में अट्ठनी मि‍लने के बाद की चमक याद आती है। शायद हमारी तरह कुछ और भी बच्‍चे होंगे जो 'बड़ा'  की बात मानते हुए यह बात कि‍सी से बताई नहीं होगी कि‍ बड़ा अपने बगान का शरीफा बेचती है....चारआने में। 

03.08.17 को 'दैनि‍क भास्‍कर' में प्रकाशि‍त कहानी 



2 comments:

kuldeep thakur said...

दिनांक 06/08/2017 को...
आप की रचना का लिंक होगा...
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी इस चर्चा में सादर आमंत्रित हैं...
आप की प्रतीक्षा रहेगी...

रश्मि शर्मा said...

धन्‍यवाद आपका