तलाक..तलाक..तलाक। ये तीन शब्द कहने मात्र से पति-पत्नी
का रिश्ता खत्म हो जाता है, चाहे उस रिश्ते की
उम्र दो महीने पुरानी हो या बीस वर्ष। इस संबध में हिंदू और मुस्लिम धर्म के
अनुसार स्थिति अलग है। हिंदू धर्म में जहां इसे सात जन्मों का बंधन माना गया
है वहीं मुस्लिम धर्म में यह एक अनुबंध है। यह स्त्री-पुरुष के बीच का करार है
कि अगर उनमें किसी भी हाल में निभ नहीं पाए तो तलाक लेकर संबध तोड़ा जा सकता
है। मगर यह अधिकार केवल पुरुषों को है कि वो चाहे तो तीन तलाक बोलकर शादी तोड़
दे। सुनने में बहुत सहज लगता है मगर इसके पीछे की पीड़़ा और डर सिर्फ एक औरत ही
समझ सकती है। अब तक यह होता आया था, पर अब आगे नहीं हो
सकेगा, इसकी उम्मीद नजर आने लगी है।
तीन तलाक का मुद्दा अभी छाया हुआ है। सुप्रीम कोर्ट में
सुनवाई चली कई दिनों तक। केंद्र सरकार ने अपना पक्ष साफ रखा है कि इस्लाम में तीन तलाक जरूरी धार्मिक रिवाज नहीं
है और वो इसका विरोध करती है। सरकार का तर्क है कि संविधान पुरुषों और महिलाओं को
बराबरी का अधिकार देता है और अदालत को इसी आधार पर इस प्रथा की समीक्षा करनी चाहिए तो उधर मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और कई मुस्लिम धर्मगुरु इसे धर्म से
जुड़ा मसला बता रहे हैं। उनका कहना है कि इस पर कोर्ट में कार्रवाई न हो। मगर
सरकार और खुद मुस्लिम महिलाओं का मानना है कि तीन तलाक मानवाधिकार और महिलाओं
के अधिकार से जुड़ा मुद्दा है।
हम जरा पीछे मुड़कर देखें तो हमें शाहबानो प्रकरण याद आता
है। इंदौर की शाहबानों के कानूनी तलाक भत्ते पर देश भर में राजनीतिक बवाल मच गया
था। मुस्लिम महिला शाहबानों को उसके पति मोहम्मद खान ने 1978 में तलाक दे दिया था। पांच बच्चों की मां थी शाहबानों और उम्र थी 62 वर्ष। गुजारा भत्ता पाने के लिए कानूनी लड़ाई लड़ी। केस भी जीत लिया
मगर भी उसे पति से हर्जाना नहीं मिल सका। ऑल
इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने शाहबानो केस में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का
पुरज़ोर विरोध किया।
इस विरोध के बाद 1986 में
राजीव गांधी की सरकार ने मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकार संरक्षण) अधिनियम,
1986 पारित किया। इस अधिनियम के तहत शाहबानो को तलाक देने
वाला पति मोहम्मद गुजारा भत्ता के दायित्व से मुक्त हो गया था। तलाक-तलाक-तलाक कहकर अपनी
जिंदगी से पत्नी को बेदखल करने के इतने वर्षों बाद भी मुस्लिम महिलाओं की स्िथति
में कोई परिवर्तन नहीं आया है।
इस घटना के बाद यह मुद्दा तब गर्म हुआ जब उतराखंड की रहने
वाली शायरा को उसके पति ने चिट्ठी भेजकर तलाक दे दिया। शायरा की शादी इलाहाबाद
के रिजवान से 2002 में हुई थी। पहले तो रिजवान उसे
बहुत प्रताड़ित करता था, जिसके बाद रिजवान और शायरा अलग-अलग
रहने लगे थे। एक दिन रिजवान ने चिट्ठी भेजकर शायरा को तीन बार तलाक कह दिया।
शायरा का कहना है कि शादी के पहले ही दिन रिजवान उस पर
अत्याचार करने लगा। अप्रैल 2015 में पति रिजवान
ने तीन बार तलाक कहकर शायरा से नाता तोड़ लिया। शायरा ने यह भी आरोप लगाया है कि
उसके शौहर ने उसका 6 बार जबरन अबॉर्शन करवाया है और वह उस पर
गर्भनिरोधक गोलियां खाने के लिए भी दबाव बनाता था। शादी के 15 साल बाद ये रिश्ता तब टूटा, जब उसके घर तलाकनामा
पहुंचा। शायरा की सुप्रीम कोर्ट से मांग है कि उसे अपने भरण-पोषण दो बच्चों की
कस्टडी चाहिए।
सोशलॉजी से ग्रेजुएट शायरा न्याय
के लिए अड़ी हुई है। खुलकर
कहती हैं कि इस्लाम धर्म में पुरूषों के मुकाबले महिलाओं को बेहद कम अधिकार दिए गए
हैं। उनके मुताबिक जब शादी सैकड़ों लोगों की मौजूदगी में तमाम रस्मों व दूल्हा और
दूल्हन की रजामंदी के बाद ही पूरी मानी जाती है तो तलाक सिर्फ पुरूषों को अकेले
में भी तीन बार बोलकर या लिखकर कह देने से क्यों मान लिया जाता है। बहुत वाजिब
सवाल है।
सुप्रीम कोर्ट में 23
फरवरी, 2016 को दायर याचिका में शायरा ने
गुहार लगाई है कि ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी) के तहत दिए जाने वाले तलाक-ए-बिद्दत यानी तिहरे तलाक, हलाला और बहुविवाह को गैर-कानूनी और असंवैधानिक घोषित किया जाए। गौरतलब है
कि शरीयत कानून में तिहरे तलाक को मान्यता दी गई है। इसमें एक ही बार में शौहर
अपनी पत्नी को तलाक-तलाक-तलाक कहकर तलाक दे देता है।
शायराबानों के बाद 28
वर्षीया आफरीन है जो इस तरह तीन तलाक के
खिलाफ सुप्रीम कोर्ट पहुंची हैं। सुप्रीम कोर्ट ने राज्य और केंद्र सरकार, महिला आयोग समेत सभी पक्षों को इस मामले में नोटिस भेजकर जवाब मांगा है।आफरीन
का आरोप है कि शादी के बाद से ही उनको दहेज के लिए ताने दिए जाते थे जो बाद में
मारपीट में बदल गया। आफरीन की शादी 24 अगस्त 2014 को इंदौर के सैयद असार अली वारसी से हुई थी। 17 जनवरी,
2016 को शौहर ने स्पीड पोस्ट से तीन बार तलाक लिखकर भेज दिया।
इन दिनों तो तलाक फेसबुक, ई मेल, स्काईप और फोन के
द्वारा दिया जाने लगा है। इन सबसे पुरूषों को तो कोई फर्क नहीं पड़ता मगर महिलाओं
की स्थिति खराब हो जाती है। वह भावनात्मक और आर्थिक रूप से टूट जाती है। शौहर
बच्चों का उत्तरदायित्व नहीं लेना चाहता। यह सब नियम महिलाओं के खिलाफ है
और उनके अधिकार से वंचित रखते हैं।
उत्तराखंड की शायरा और जयपुर की आफरीन
के अलावा भी ऐसे कई केस सामने आए हैं तीन तलाक की शिकार हुई हैं। उन्हें न तो
मेहर की रकम ही मिली और न भरण पोषण। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में शायरा के वकील बालाजी श्रीनिवासन का कहना
है, ‘इस याचिका में शरीयत के दकियानूसी कानूनों को चुनौती दी
गई है., इसलिए हंगामा हो रहा है। हमने याचिका में कुछ ठोस
कानूनी मामलों का जिक्र किया है जिससे यह साबित होता है कि तिहरा तलाक, निकाह हलाला और बहुविवाह किस तरह से मुस्लिम औरतों को गुलाम बनाए रखने के
तरीके हैं। साथ ही इस तरह के मामलों में आए कुछ मिसाल बने फैसलों का भी जिक्र किया
है जो शायरा के केस में मददगार साबित हो सकते हैं। कुछ ऐसे विशेषज्ञों की टिप्पणियों
और चर्चित सर्वे को भी दर्ज किया है जो इस ओर इशारा करते हैं कि इस तरह की प्रथाएं
मुस्लिम औरतों पर एक तरह से हिंसा करने का एक जरिया बनी हुई हैं।
इस संबंध में सोचने वाली बात यह भी है कि तकरीबन 22 मुस्लिम
देश, जिनमें पाकिस्तान और बांग्लादेश भी शामिल हैं, अपने यहां सीधे-सीधे या अप्रत्यक्ष रूप से तीन बार तलाक की प्रथा खत्म कर
चुके हैं। इस सूची में तुर्की और साइप्रस भी शामिल हैं
जिन्होंने धर्मनिरपेक्ष पारिवारिक कानूनों को अपना लिया है। ट्यूनीशिया, अल्जीरिया और मलेशिया के सारावाक प्रांत में कानून के बाहर किसी तलाक को
मान्यता नहीं है। ईरान में शिया कानूनों के तहत तीन तलाक की कोई मान्यता नहीं है।
कुल मिलाकर यह अन्यायपूर्ण प्रथा इस समय भारत और दुनियाभर के सिर्फ सुन्नी
मुसलमानों में बची हुई है।
तीन तलाक के मुद्दे पर
सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुरक्षित रखा है। ऑल
इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी) ने अदालत से कहा कि उसने फैसला किया
है कि वह काजियों के लिए एक दिशा-निर्देश जारी करेगा, जिसमें
वे मुस्लिम महिलाओं द्वारा निकाह के लिए अपनी मंजूरी प्रदान करने से पहले उन्हें
तीन तलाक प्रथा से बाहर निकलने का विकल्प प्रदान करेंगे।
फैसला जो हो,
इसके पक्ष और विपक्ष में धर्म और कानून की लड़ाई चले मगर इस
सत्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि तीन तलाक औरतों के अधिकार के खिलाफ है। अभिनेत्री और सामाजिक कार्यकर्ता शबाना आजमी ने एक बार फिर से तीन
तलाक प्रथा की आलोचना की है। शबाना आजमी ने कहा है कि तीन तलाक अमानवीय प्रथा है
और मुस्लिम महिलाओं के बुनियादी अधिकारों का उल्लंघन करता है। महिला मुद्दों को प्रमुखता से उठाने वाली नाइस हसन कहती हैं कि
शाहबानों के समय मुस्लिम महिलाएं अपने हक को लेकर उतनी मुखर और तैयार नहीं थी
जितनी अब हैं।
महिलाएं सड़क पर उतर रही
हैं। तीन तलाक से मुक्ति का नारा बुलंद है और उतनी ही बुलंद है महिलाओं
की इच्छाशक्ति। बात मात्र इतनी है कि परंपराओं के नाम पर हम गलत प्रथा का त्याग
करेंगे। स्वस्थ समाज के लिए गलत परंपराओं को त्यागना ही उचित है। मुद्दा तलाक
हो या कोई अन्य बुराई। लॉ कमिशन ऑफ इंडिया के
पूर्व चेयरमैन ताहिर महमूद ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि तीन तलाक की जगह एक
तलाक भी हो तो भी व्हाट्सऐप, ईमेल से तलाक़ देने
की बीमारी रह ही जाएगी. इसलिए एकतरफ़ा तलाक़ की प्रक्रिया समाप्त होनी चाहिए. मर्द
की मर्जी से से न होकर औरत-मर्द दोनों की रजामंदी से तलाक हो। यही उचित है।
क्या है तीन तलाक
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इस्लाम में तलाक के तीन
तरीके प्रचलित हैं। पहला है तलाक-ए-अहसन। इस नियम के अनुसार तलाक-ए-अहसन में
शौहर बीवी को तब तलाक दे सकता है जब उसका मासिक चक्र न चल रहा हो (तूहरा की
समयावधि)। इसके बाद तकरीबन तीन महीने की समयावधि जिसे इद्दत कहा जाता है, में वह तलाक वापस ले सकता है। यदि ऐसा नहीं होता तो इद्दत के बाद तलाक को
स्थायी मान लिया जाता है। लेकिन इसके बाद भी यदि यह जोड़ा चाहे तो भविष्य में शादी
कर सकता है और इसलिए इस तलाक को अहसन (सर्वश्रेष्ठ) कहा जाता है।
दूसरे प्रकार के
तलाक को तलाक-ए-हसन कहा जाता है. इसकी प्रक्रिया की तलाक-ए-अहसन की तरह है लेकिन
इसमें शौहर अपनी बीवी को तीन अलग-अलग बार तलाक कहता (जब बीवी का मासिक चक्र न चल
रहा हो) है। यहां शौहर को अनुमति होती है कि वह इद्दत की समयावधि खत्म होने के
पहले तलाक वापस ले सकता है। यह तलाकशुदा जोड़ा चाहे तो भविष्य में फिर से शादी कर
सकता है। इस प्रक्रिया में तीसरी बार तलाक कहने के तुरंत बाद वह अंतिम मान लिया
जाता है।तलाकशुदा जोड़ा फिर से शादी तब ही कर सकता है जब बीवी किसी दूसरे व्यक्ति
से शादी कर ले और उसे तलाक दे। इस प्रक्रिया को हलाला कहा जाता है।
तीसरे प्रकार को
तलाक-ए-बिद्दत कहा जाता है. इसमें तलाक की उस प्रक्रिया की बुराइयां साफ-साफ दिखने
लगती हैं जिसमें शौहर एक बार में तीन तलाक कहकर बीवी को तलाक दे देता है.
तलाक-ए-बिद्दत के तहत शौहर तलाक के पहले ‘तीन बार’ शब्द लगा देता है या ‘मैं तुम्हें तलाक देता हूं’
को तीन बार दोहरा देता है। इसके बाद शादी तुरंत टूट जाती है. इस
तलाक को वापस नहीं लिया जा सकता। तलाकशुदा जोड़ा फिर हलाला के बाद ही शादी कर सकता
है।
कहते हैं कि
तलाक-ए-बिद्दत या एक साथ तीन बार तलाक कहकर तलाक देने की प्रक्रिया यह सुनिश्चित
करने के लिए शुरू की गई थी कि जहां जोड़े के बीच कभी न सुधरने की हद तक संबंध खराब
चुके हैं या दोनों का साथ रहना बिल्कुल मुमकिन नहीं हैं वहां तुरंत तलाक हो जाए।
''राष्ट्रसंवाद'' पत्रिका में छपा आलेख
3 comments:
बहुत गहरी समस्या का विशद विष्लेषण किया आपने, आभार.
रामराम
#हिन्दी_ब्लॉगिंग
सुन्दर रचना,
मेरे चिट्ठे (https://kahaniyadilse.blogspot.in/2017/07/foolish-boy.html) पर आपका स्वागत है|
सारे तर्क जहाँ बेकार , वहाँ काम करे डंडा ज़ोरदार .
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