Saturday, March 3, 2012

फूल पलाश का.....



पत्‍तीवि‍हीन शाखों पर
जब
दग्‍ध पलाश
लहकता है......
सेमल की दरख्‍त से
सफेद
रूई के फाहे
हवाओं संग
अठखेलि‍यां करते हैं.....
जब
आम्रमंजरि‍यों से
कूकने की आवाज
आती है....
तब
सूनी दोपहर में
मैं उन यादों की पोटली
धीरे-धीरे खोलती हूं
जो
जलाता रहता है
हरदम
मेरा मर्मस्‍थल
जलते अंगार सा
जैसे
जिंदगी के जंगल में
मेरे लि‍ए हो
सिर्फ
फूल पलाश का......

5 comments:

पुरुषोत्तम पाण्डेय said...

प्यारा सा बसन्ती एहसास, सुन्दर रचना.

jadibutishop said...

badhiya rachna ...
http://jadibutishop.blogspot.com

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून said...

जो
जलाता रहता है
हरदम
मेरा मर्मस्‍थल
जलते अंगार सा

वाह सुंदर

ashokjairath's diary said...

शब्द आकार लेने लगे हों जैसे ... जैसे आपकी कविता ही रूप अरूप के आगे आपकी पहचान बन ने लगी हो ... अवाक करता अचरज घिरने लगा है ... लोग फूलों से पंखुरियाँ बनाते है और आप पंखुरियों से फूल ...

गर्व होता है आप पर और दर भी लगता है ... प्यार और आशीर्वाद ... खुश रहें ...

Atul Shrivastava said...

बेहतरीन।