Friday, March 16, 2012

गुम क्‍यों हो....

उतरती धूप को वि‍दा करने
आई शाम
रास्‍ता भूल आज मेरी
देहरी पर आ खड़ी हुर्इ्
और मुझे
अपनेआप में गुम पाकर
कहा.....
न कि‍सी के जाने का दुख
न आने की खुशी
आम की बौर की तरह
आज तू क्‍यों बौराई है....
गुम है ऐसे जैसे
चली प्‍यार भरी पुरवाई है....
मदमाती हवा है इसलि‍ए
महक रही है तू भीनी-भीनी
खुद पर इतराने वाली
ये याद रख कि
तू फूल नहीं बस मंजर है...
आज खि‍ली-महकी है
कल सूख जाएगी.....
भौरों को पनाह देने वाली
कल न होगा कोई तेरे आसपास
पेड़ से टपक-टपक कर
धूल बन जाएगी......
इसलि‍ए
हर सोच को कर खुद से परे
न कर 'खास' होने का गुमान
आज जो हैं बनते तुम्‍हारे
कल कि‍सी को
तेरी याद भी नहीं आएगी......।

7 comments:

Sunil Kumar said...

हर सोच को कर खुद से परे
न कर 'खास' होने का गुमान
आज जो हैं बनते तुम्‍हारे
कल कि‍सी को
तेरी याद भी नहीं आएगी......।
बहुत खूब क्या बात है , मुबारक हो

ANULATA RAJ NAIR said...

बहुत सुन्दर रश्मि जी...
जीवन का यथार्थ है ये...

भौरों को पनाह देने वाली
कल न होगा कोई तेरे आसपास
पेड़ से टपक-टपक कर
धूल बन जाएगी......

बहुत खूब..

Atul Shrivastava said...

गहरे भाव लिए सुंदर रचना।

संजय कुमार चौरसिया said...

अतिसुन्दर

दिगम्बर नासवा said...

सच है हर किसी का समय एक सा नहीं होता .. जो आज है कल नहीं होता ...

poonam said...

bahut sunder

मनोज कुमार said...

समय के महत्व को जो समझता है, वही आम से खास हो पाता है।
सुंदर बिम्बों से आपने अपनी बात रखी है।